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________________ जैन पत्र : एक अध्ययन 0 श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोग' एम. ए. [पत्र को भाँति समस्यायें मिला करती हैं। मौत बैरंग लिफाफे की तरह पाती है ।। सुश्री ज्ञानवती सक्सेना की ये पंक्तियां जैन पत्रों पर भी चरितार्थ होती हैं। सामाजिक धार्मिक और कभी-कभी राष्ट्रीय जीवन हो जाते है। कभी-कभी देश काल भूल जाते हैं। की झलक देने वाले अन्य माध्यमों की तरह जैन पत्र भी साप्ताहिक से मासिक, मासिक से त्रैमासिक तक हो जाते एक सशक्त माध्यम हैं। वे हमारे पठन-पाठन, मनन- हैं। जैन पत्रों के सभी सहयोगी प्राय: कबीर के शब्दों में चिन्तन और सूचना तथा मनोरजन के भी श्रेष्ठ साधन 'जो घर के पापना होह हमारे साथ' सदृश होते हैं, है परन्तु दुःख का विषय यह है कि प्रविकाश जैन पत्र, उनमें कार्य करने की क्षमता का प्रादुर्भाव हो नही पाता धर्म और समाज का न तो मही चित्र प्रस्तुत करते है और है। जैन पत्रो के सम्पादक ही जब अवैतनिक होते है तब न समचित सामयिक दिग्दर्शन ही करते है केवल इतना लेखको/कवियो के लिए रचना वाले पत्र की प्रति भिजवा ही नही बल्कि रचना पोर समाचार मूलक स्वस्थ स्वच्छ दे तो बहुत समझो। जो पत्र कुछ लेखकों कवियो को पठनीय मननीय सामग्री भी अपने पाठको ग्राहको को निःशुल्क पत्र भेजते हैं वे उन्हें अपने वर्ग की परिधि में नही दे पाते है। ही देखना चाहते है। यदि वे कृत्रिम लक्ष्मण रेखा का पत्र प्रकाशन के नाम पर घटिया छपाई मामान्य उलघन करते हैं तो पत्र और पत्र व्यवहार तक बन्द कर कागज साधारण रचनायें अस्वस्थ सामाजिक दृष्टिकोण देते है। कोई धूर्त कुशल पत्रकार तो पुरस्कार देने की संकुचित साम्प्रदायिक दृष्टि प्रदूरदर्शी सम्पादकीय धिसी घोषणा करके भी स्वयं ही पचा जाते है और पुरस्कार साफ पिटी नवीनता विहीन बातें अनाकर्षक समाचार लगभग बचा जाते हैं। ऐसे पत्र पाठको को भ्रम मे डाले रहते हैं सब बेकार और बेगार मा लगता है। जंन पत्र समाज- कि वे लेखको/कवियों को उनको रचनामों का पारिश्रमिक सुधार की अपेक्षा प्रात्म उद्धार की चर्चा में विशेष रस दे रहे है इस प्रमोष उपाय द्वारा वे समाज से सम्पत्ति लेते है। कभी-कभी सिर-पर के समाचार और प्रवश्य बटोर लेते है। सम्बाददाता को तो शायद ही पत्र निबन्ध भी छाप देते है। कालान्तर में पूर्वापर विचारक को प्रति मिलती हो । महाममिति के बलेटिन मे भी स्वय प्रौढ़ विद्वानो के प्रतिवादात्मक वृत्त-निबन्ध भी प्रकाशित कर सेवा भावी संवाददाता चाहे गये थे। प्रोसतन जातीय देते है। एक से अधिक बार जो नही छापना चाहिए, जिससे पत्रों की संख्या अधिक होने पर भी स्तर अतनत ही पत्र/पत्रिका की छवि बिगडती है, वह छप जाता है और जो रहता है। छपना चाहिए, यह पत्र की फाइल मे वर्षों दबा रहता है या नवोपकार -, व्यनित. रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है। गत । समाज दोनों में कोई भेदभाव नहीं करती है। जैन पत्र प्रायः 'चले चलन दो ढला चला' वाली समान रूप से सहायता देती है, ग्राहक बनती है। जो नीति लिये रहते हैं। जैन पत्रो का निकलना पोर बन्द व्यक्तिगत पत्र हैं वे सामाजिक की भपेक्षा व्यवसायिक होना एक साधारण-सी बात है । वे बिजली की अनियमितता अधिक हैं। कारण उनसे सम्पादक का नाम ही नहीं बल्कि मुद्रणालय के कर्मचारियो को प्रकृपा, प्राकृतिक प्रकोप दाम भी जुड़ा है और जो संस्थागत पत्र हैं, वे भी नीति बाढ़, सम्पादक के प्रयास से परेशान होकर नियमित भी के नैतिक बन्धन में तो हैं ही। जब समान स्वार्थ में भी
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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