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बैन पत्र : एक अध्ययन
धार्मिक-सामाजिक सस्थायें एक नहीं हो पाती है तब उनके मंदिर-वेदी-पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पौर गजरप-सम्मेलनपत्रों और सम्पादकों-लेखकों-कवियों का एक मेक होना अधिवेशन के सीमित अवसर पर ही समन्तभद्राचार्य के कैसे सम्भव है ? प्रतीत मे एक दो बार सम्पादक लखक शब्दो में 'न धर्मो घामिबिना' की भावना को इतिश्री को प्रखबारी चर्चा हुई। सम्मेलन हो भी जाता तो वह हो जाती है। जो जैन दरिद्रता की परिधि मे है, जो न सभानों के सम्मेलन सदश सकस बन कर रह जाता। पिता अपनी कन्यानो के विवाह की चिन्तायें लिए हुए हैं, व्यक्तिगत पत्रकार तो समाज के सम्पर्क में रहकर भी जो जन युवक काम-नाम-दाम के लिए अधीर प्रातुर है ? उससे सूदूर रहते है, शायद उन्हें भय है कि कहीं कोई अन्य उनके लिये भी जैन पत्र क्या व्यवस्था मूलक सहयोग देते है? हस्तक्षेप न करने लगे या उन पर छा जावे । कोई प्रचारको कोई नेतर हमारे जैन पत्रो को देख-देख कर क्या धारणा द्वारा, कोई लाटरी द्वारा ग्राहक मख्या बढाना चाहते या बनावेगा? यही कि जैन परस्पर लडाकू है, पात्म प्रशंसा जो ग्राहक है, उन्हे बनाये रखना चाहते है । चूकि मभी प्रिय है, प्रीति भोजो के इतने शोकीन हैं कि प्रतिष्ठानों पत्रकार अपने लिए बहुत बडा मानते है । 'हम किमी से मे भी नही भूलते है । वे कार्य की सफलता, प्रस्ताव और कम नहीं समझते है। प्रतएव वे पत्रकारिता की दिशा में प्रतिक्रिया तथा परिणाम से नही, जमाव से मानने लगे है। विशेष परिश्रम करना तो दूर रहा, कोई ममझदार उन्हे जैसे रामानन्द मिह ने खण्डवा में कहा था-हिन्दी सकेत करें तो वे उसकी अवहेलना करते है। सुझाव- साहित्य को समृद्ध बनाने में प्राज का साहित्यकार सम्पत्ति मांगते है पर छापते वही है जो उनके अनुकूल समुचित योगदान देने में लगभग असफल रहा है। अध्ययन हो। प्रतिकूल छापकर प्रतिवाद करना जैन पत्रो को एक चिन्तन की कमी स माहित्यकारो मे कल्पना एव लगभग नही पाता है।
मृजन शक्ति का क्रमिक हाम होता जा रहा है वैसे हो जैन पत्रो में धार्मिक-सामाजिक चर्चा की माह में जन पत्र : एक अध्ययन निबन्ध क पाठको से कभी-कभी व्यक्तिगत प्राक्षेप मूलक बातें भी बिना पूर्वा
करना है कि जैन धर्म मोर समाज को समुन्नत बनाने मे पर विचार किये छार दी जाती है। जैन पत्र परायो की
जैन पत्र पत्रकार, लेखक-कवि-कहानीकार भी प्रसफल रहे
जन पत्र• पत्रकार, लग्नकनिन्दा और अपनो की प्रशसा करने मे कुशल है। किसी भी है। जन ममाज ममृद्ध सम्पन्न है भोर जैन साहित्यकारो में विरोधी की ही बात को छापने के लिए न तो वे साहस ।
प्रतिभा का प्रभाव नही है पर सुयोग्य मंयोजक मोर जुटा पाते हैं और न छापकर तत्काल उमका मतकं मटीक माथिक प्रोत्माहन के प्रभाव में जन माहित्यकार प्रागे बढ़ उत्तर भी दे पात है। कानजी प्रकानजी, तेरहबास पन्थ, नही पाने है और स्वर्गीय भगवत्स्वरूप भगवत के शब्दो म महासभा । सिद्धान्त मक्षिणी। परिषद जातीय सज्ञक सोचना पड़ना है-माज कड़ानो के इस युग में जैन कथाजैसे विविध वर्ग रहते है। प्रत्येक पत्र प्रपन लिए मर्वोपरि उपवन मूना क्यो' जैन पत्री को मख्या अधिक है शीर्षस्थ समझता है। नवादित पत्रकार तक पूर्वाग्रह लिए पर उनमे "अनान" जैसे उच्च कोटि के प्रोर तीर्थकर' मन्य अनुभवियो के अनुभवों से लाभान्वित होने के लिए सदा मजग कितन है ? जबकि जैन पत्रा के सपादन कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते है। सामयिक सुझाव ग्रान म कुशलता का पोर प्रकाशन में सुरुचिपूर्णता का समावेश पर भी नही मानते है । नवीन प्रान्दोलन तब तक नही नही होता है, जब तक उनक कवि-लखक ममचित पारिछेरते हैं जब तक वह सिर पर पा हा न पड़े। क्या जैन श्रमिक तो दूर रहा । सामान्य पाष्टज भी नही पात है पत्रो में वास्तब मे जन जन की झाकी मिलती है ? जनत्व और मवाददाता पत्र की प्रति को प्रताक्षा म अपनी माँखें की झलक पत्र के नाम पथवा उद्देश्य को उक्ति तक हो तो पथरा रहे है जब तक पाठको की स्थिति से न पत्र सन्तुष्ट सीमित नही है? जैन संस्कृति के माघार सदृश होते है और न सामान्य पाठक क लिए वे सन्तुष्टि देत सहधर्मी बन्धुषों के सहयोग बाबत कोई सूचना भी निकलती है तब तक जैन पत्र मेरी दृष्टि में उस वर्षा क समान है है? या पर्युषण पर्व मौर अष्टान्हिका के अवसर पर, जो न हो तो अनावृष्टि का सकट मोर हा तो अतिवृष्टि