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________________ ३२, बर्ष २३, कि.१ अनेकान्त का संकट, दोनों ही स्थितियां सुखद नहीं होकर दुःखद हैं। के सभी सदस्य इस विषय में गम्भीरता पूर्वक विचार बन पत्र मी दैनिक जीवन धारा में जुड़ें। प्रादर्शवादी बिनिमय करेंगे। जैन पत्र-पत्रिकामों के संबंध में निष्कर्ष धार्मिक चर्चा मे इतने तन्मय नहीं हो जायें कि यथार्थ की स्वरूप कहा जा सकेगा किबसुधा के जीवन की इतिश्री ही हो जावे। वे हल्के सस्ते (१) न पत्र पत्रिकायें कम निकलती हैं. कार्यों में छिछले उबाऊ, वातावरण से बचें। अपनी ही रंगीन सपनीली रूबे हुए समाज के लिए निकलती है, अविकसित पाठकों दुनियां में विचरण नहीं करते रहें बल्कि वास्तविक जैन के लिए निकलती है, एकरूपता के लिए निकलती है, बन की झांकी प्रस्तुत करें। जिनका दुश्चरित्र विख्यात प्रतएव उन्हें बाहर से ही देखकर पहचाना जा सकता है। है, जो सट्टा जुमा शराबखोरी तस्करी वृत्ति के लिए हैं। (२) जैसे कुछ लोग बगीचा लगाते, ग्रन्थालय बनाते, जो मांसाहारी भोग विलासी हैं, ऐसे व्यक्ति भले तीर्थकर कार खरीदते, सट्टा लगाते-प्रतिष्ठा बढ़ाते वैसे ही जैन के माता-पिता भी पचकल्याणक प्रतीष्ठा मे क्यों न बने पत्र शौक लिए निकलते, शौक पूर्ण होते ही शोक लिए पर उनके वृत्त-चित्र न छापे तो जैन पत्र सार्थक हो । यदि समाप्त होते है। व्यक्ति-सभा-सस्थागत सभी पत्रो का वे भाषिक प्रलोभन मे फंसे तो पग-पग पर खतरा है। लगभग यही हाल है कि वे बेहाल होकर निहाल होने सेवा भोर मेवा दोनो पृथक है । यदि जैन पत्र ऐसे लोगों करने का दम्भ करते है। (३) जैन पत्रों के प्रकाशन का उद्देश्य व्यावसायिक के चरित्र-चित्र निकालते है, जो समाज के लिए सत्य मार्थिक लाम प्रत्यल्प रहता है पर साहित्य और समाज प्रेरणा नही देते है तो कहना होगा कि वे हाथो के दाँत में प्रतिष्ठित होने का भाव अधिक रहता है । जो कविताहैं। उनके प्रासू मगर के पास है, वे अपनों का भले भला कहानी-निबन्ध-नाटक लेखन में निपुण नही हो पाते वे कर लें पर समाज का नही कर सकते है। सम्पादक बन जाते है, प्रवैतनिक सम्पादक होकर पत्र को 'जैन पत्र : एक अध्ययन' निबन्ध का उद्देश्य जैन पत्रों को मिली धनराशि से अपना कार्य-व्यापार बढ़ाते है और समीक्षा मात्र करना नही है बल्कि उनकी प्रत्यक्ष दुर्बलतायें लेखकों व कवियों को पत्र का घाटा बतलाते हैं।' बतलाकर उन्हें उन्नात का पार जान क लिए प्ररणा दना (४) पत्र-पत्रिका निकालने या मालोचना-प्रत्याहै। जैन पत्र जिस स्थिति में निकल रहे हैं पोर उनके लोचना में उलझने से भी उतनी अराजकता नहीं फैलती सम्पादक-प्रकाशक उन्हे जिम स्थिति में निकाल रहे है, है, जितनी अराजकता व्यक्तिगत राग-द्वेष और ईर्ष्यावह तो स्तुत्य प्ररि श्लाघ्य काय है पर दोषकाल तक असहिष्णता के प्रदर्शन से फैलती है। इसलिए जैन पत्र परानी ही परम्परा का निर्वाह किये जाना पोर बोसवी- बातें वीतरागता की करते है परन्तु अपना प्राध्यात्मिक कोष सताब्दी मे भी अठारवी सदी जैसी बातें करना कोई नही छोड़ते हैं। बुद्धिमानी नही हैं। जैन समाज ममृद्ध सम्पन्न समाज है, (५) जो लोग बाहर से जैनत्व के लिए मर-मिटने उसके पत्र माथिक दृष्टि से विपन्न हो, यह बड़ी विडम्बना की प्रेरणा देते हैं, वे ही लोग भीतर से अपने पाचरण से का विषय है। जैन कवि-लेखक भी प्रतिभा सम्पन्न है सिद्ध करते है कि धर्म सस्कृति नहीं है बल्कि गन्दी परन्तु माथिक सामाजिक प्रोत्साहन के प्रभाव में उनकी खतरनाक राजनीति है। इसलिए दूसरों को उल्लू बनाकर प्रतिमा को प्रतिभा बन नही पाती है। माशा है समाज अपना उल्लू सीधा करना ही धर्म पौर समाज, साहित्य १."दिगम्बर जैन पत्र तो बहुधा घाटे में चलते है। जून, जुलाई के अंकों मे नही दिखाई दी। लाटरी पारिश्रमिक देने की स्थिति मे नही है। एक ही पत्र निकालकर ग्राहकों को प्रतिवर्ष रुपये देते हैं उसमे फर्क सम्पन्न है सन्मति सन्देश, क्योंकि उसके बारह हजार नहीं पड़ता और लेखको को एक वर्ष भी नहीं दे सके।' ग्राहक है और स्थायी सदस्य बनाकर एक लाख रुपया एक स्वर्गीय मित्र के २२ जुलाई १९७१ के पत्र का प्राप्त कर लिया गया है। लेखक ने पुरस्कार योजना प्रश, जिन्होंने मेरी तरह सम्मति सन्देश में काफी बाल की पो सो वह मात्र प्रल तक चली। फिर मई, लिखा था।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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