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________________ २८, बर्ष ३३, कि.१ भनेकान्त दशहरे या दिवालो के दिन माटे या गोबर से बनाकर पूजा की तरफ देखता खड़ा है। यह दृश्य बहुत अधिक मुद्रामों करते हैं। यह प्रतीक अयोध्या का है, जैसा अथर्ववेद पर पाया जाता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुद्रा नम्बर से भी पता लगता है। इसमे दूसरी तरफ घुटनो के बल १४ में भी तीन दिशायें हैं, एक दिशा पर वृक्ष है जिसके बैठा हुमा व्यक्ति एक दूसरा प्रतीक का वृक्ष को भेंट कर रहा दोनों तरफ हिरनों का जोड़ा है और एक तीन सिर वाला है। वह इस प्रकार का प्रतीक भेंटकर रहा है, जैसा प्रतीक जानवर है, इसकी अन्य दोनो दिशामों पर १० जानवरों पूर्व मुद्रा में देवी व्यक्ति को भेंट कर रहा था । एकमा ही का एक जलस मे है । इस जलम दो मगर भी हैं जो अपने प्रतीक एक देवी व्यक्ति को और एक वृक्ष को मेंट करना मुंह में एक-एक मछली लिये जा रहे है । ऐसा प्रतीत होता महत्वपूर्ण विशिष्टता है । यह यही दिग्याता है कि यह वृक्ष है कि मछलियां क्योकि पृथ्वी पर नहीं चल सकती है इससिन्धघाटी सभ्यता के देवी पुरुष का भी प्रतीक है और लिये मगर के द्वारा ले जाई जा रही है। इस प्रकार मोहनअलग-अलग मुद्रामों पर वहा हम इस तरह से वृक्ष को जोदड़ो से प्राप्त मद्रा नम्बर ४८८ मे चार पशुधों का, तीन पाते हैं, हमे यह मानना चाहिये कि यह इमी पुरुष को मगर व तीन पशुप्रों का जुलम है, मगर मछलियां मुंह में बता रहे हैं। लिये जा रहा है और यह जुलूस बहुत प्रादरपूर्वक जा निर्वाण अयोध्या में रहा है। इन तीन मुद्रामों पर जानवरो के जुलूस को इस बात से इसकी भोर पुष्टि होती है कि मुद्रामों मे देवी पुरुष की तरफ श्रद्धापूर्वक जाते हुए दिखाया गया इस वृक्ष के साथ दोनों तरफ वही हिरनो का जोड़ा है। इसका क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है? इससे मिलता है जो इस देवी पुरुष के मासन के नीचे पूर्व यही प्रतीत होता है कि यह उस देवी पुरुष के जीवन का मद्रामों पर देखा गया था। इन मुद्रामो पर क्योकि इस देवी कोई ऐसा विशिष्ट क्षण है जब समस्त जीव जिनमे पशु पुरुष के प्रतीक है, इसलिए यह माना जा सकता है कि मोर पक्षी भी सम्मिलित थे, उसे नमस्कार करने के लिए इस देवी पुरुष का प्रयोध्या से भी सम्बन्ध है। हम यह पोर उसे सुनने के लिए भी जा रहे थे। हिन्दू पौराणिक देखते हैं कि जैन पौराणिक गाथाम्रो के अन्दर ऋषम का गाधामों में कोई ऐसा जिक्र नहीं पाता है जबकि पशु पौर निर्वाण अयोध्या में हुमा था। हम यह भी पाते है कि पक्षी किसी देवी पुरुष के पास गये थे, परन्तु जैन कयामों महान पुरुषों को वृक्षो से प्रतीकात्मक रूप मे सदा ही में ऐसी कहानी पायी जाती है। ऋषभ, जो पहले बताया जाता रहा है। हम यह पाते है कि प्रारम्भिक काल तीर्थकर थे, को जब केवल ज्ञान प्राप्त हुमा तब उन्हें में गोतम बुद्ध को बोधि वृक्ष से ही मूर्तियो पर बताया भाषण देना आवश्यक हुपा। एक बहुत विशाल भाषण जाता था व केवल बाद मे ही उनकी मूर्ति बनने लगी। देने का स्थान बन गया जिसे जैन मान्यता के अनुसार इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यह वैवी चित्रण बलराम । समवसरण कहते हैं व समस्त देवता मौर समस्त बीवका न होकर ऋषभ का ही है। जन्तु सुनने गये थे। इन उपरोक्त मुद्रामों पर कदाचित जैन समवसरण का संकेत इन घटनामों को प्रदर्शित किया गया है और अगर यह इस सबके बाद अन्य मद्रामो को देखना उचित होगा। सत्य है तब यह देवी पुरुष ऋषभदेव होना चाहिये पर मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुद्रा नम्बर १३ मे मद्रा की तीन सिन्धुघाटी सभ्यता जैन सभ्यता होना चाहिये । दिशायें है । उस दिशा पर एक पेड़ है जिसक दोनो तरफ ऋषभदेवके पुत्र सम्राट भरत हिरन है जो इस बात को बनाते है कि यह वृक्ष देवी ह ड़प्पा से प्राप्त मुद्रा नम्बर ३०८ मे एक पुरुष पुरुष का प्रतीक है। दूसरी तरफ तीन जानवरों का-एक दिखाया हमा है, जिसके दोनो तरफ एक-एक शेर बड़े शृग, हाथी मोर गण्डा का जलस है जो देवी वृक्ष की है। इसी दृश्य का चित्र मोहनजोदड़ो को प्राप्त पार तरफ जा रहा है। तीसरी तरफ एक पेड़ है, माखिरी डाली मुद्रामो पर भी पाया जाता है । हिन्दू पुराणों मे भरत को पर एक व्यक्ति बैठा हुमा है जिसके नीचे एक शेर पोछे बचपन से ही शेरों के साथ दिखाया गया है परन्तु यह ६ विद्वान् लेखक ने अयोध्या को ऋषभदेव की निर्वाण-भूमि माना है किन्तु जन मान्यतानुसार प्रयोध्या उमकी जन्मभूमि है तथा निर्वाण भूमि तो अष्टापद है। -सम्पादक
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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