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________________ ४२, ७, कि०४ 'जयरम्मिणिबहनदि रमोबण्णणा कवा होवि से सफल रहा। ऐसे निमित्त भाग्य से ही मिलते है। हमले पते केवलिगुणा पवा होति ॥ ऐसे व्यबहारी प्रसग जनसाधारण के लिए पूण्य बन्ध में -समयसार, ३० विशेष सहायक हो सकते है और व्यवहारियों का मार्ग भो जैसे नगर का वर्णन करने पर राजा का वर्णन किया नहीं यहा ववहार देसिदा पुण जेदु प्रपरमे ठिबा भावे।' होता, उसी तरह देह के गुणों का स्तवन होने से केवली जो जीव प्रपर भाव में है प्रति श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के के गुण स्तवन रूप किए नहीं होते । पूर्ण भाव को नहीं पहुंच सके है, साधक अवस्था में ही उक्त प्रकाश में स्पष्ट है कि भ० बाहुबली की मूर्ति स्थित है, वे व्यवहार द्वारा ही उपदेश योग्य है । मोर ये हमारा ध्येय लक्ष्य नही, वह तो मात्र निमित्त (माघार) सब जो उपक्रम है, सब व्यवहार ही है--प्रर्थात् प्रस्तुत रूप है, वह कुछ करती नहीं, कर सकती नहीं, अपितु प्रसग मे मब पुण्य ही है । उसके माधार से सब कुछ हमी को करना है। प्राइए, हम वास्तव मे-निश्चय शुद्धरूप से तो बाहुबली स्वामी बाहबली के अन्य रूपों मे मोहित न हो, उनके जीवन से की मुद्रा का प्रवलम्बन-निमित्त प्राप्त करने से जीव पाश्म-जागमिमीखें-मतिमात्र में ही अपने को न खो दें। परम्परित समार के पार का मार्ग ढ सकेगे। अनुभव कहने को वर्तमान युग खोज का युग है । लोग खोजो तो उनका अपना ही होगा :में लगे है भौतिक पदार्थों की। वे खोज रहे है एटमशक्ति 'मादा खु मज्झ जाणे अावा मे बंमणे चरित। को, नक्षत्रों के घरों को। कोई खोज रहे है प्रस्तरखण्डों मावा पच्चक्खाणे मादा मे संबरे जोगे ।' पौर प्रन्यों में अपनी प्राचीनता को। भला, अध्यात्म में ये सब जो बाह्य मे कहे जाने वाले दर्शन-ज्ञान चारित्र, भी कोई खोजने की वस्तुयें है। जैन मान्यतानुसार तो प्रत्याख्यान, संवर योग मादिक है, वे भी सब वास्तव में अन्य ये सब अनादि है-पुद्गल खण्ड है पोर इनमे परिवर्तन कुछ नही-प्रास्मरूप ही है। बहिरग तो मात्र व्यवहार चलता रहता है। ये सभी पात्मा से भिन्न-स्वतन्त्र द्रध्य भिन्न-स्वतन्त्र द्रव्य है और यह व्यवहार मेरे शुद्ध स्वरूप में प्रयोजनी भूत नही है. प्रात्मा से इनका या इनसे प्रात्मा का कोई बिगाड़- है। जहां तक : काइ बिगाड़ है। जहां तक मन-वचन काय की प्रवृत्ति का प्रश्न है वह सधार नही। पदार्थ स्व-चतुष्टय की अपेक्षा अपने मे ही प्रास्तब की कारणभूत ही है और अन्ततोगत्वा प्रानव ससार विद्यमान रहता है। ऐसे में जब हमे बाहुबली भगवान को को परिपाटी ही है। मोक्ष के साधनभूत तो केवल शुद्ध निमित मान कर अपने को खोजना है तब इन पर-कथाम्रो एकाकी-प्रात्म-भाव-बीतगगता मात्र है, जिसमें प्रास्त्रव. की वास्तविक उपयोगिता कोई नही। बंध नही । इसीलिए ज्ञानी जीव की प्रवृत्ति ज्ञानमयो होती व्यवहार दृष्टि से माज जिस सहस्राब्दि महामस्तका- है-वह प्रात्मा-परिणामो का चितवन करता है पोर भिषेक का प्रसग है उसमें मुनिश्री विद्यानन्द जी का प्रमुख उसके लिए अन्य सब बाह्य-निमित्त बाह्य ही होते है - वह हाय है। २५००वां निर्वाण उत्सव भी इन्हीं की कर्मठता उनमे लीन नही होता । जैनागमों का सार भी यही है कि (पृष्ठ ४० का शेषांश) कुछ भी हो, यह स्पष्ट है कि गोम्मट सस्कृत के 'मन्मथ' भाषा के कवि पप कृत 'प्रादि-पुराण-८६५२-५३) में, शब्द का तद्भव रूप है पोर यह कामदेव का द्योतक है। चामुडपराय पुराण में भी उनको कामदेव कहा गया है। अब एक प्रश्न उठता है कि बाहुबलि की विशाल श्रवणबेलगोल के न० २३४ (सन् १९८०) के मूर्ति 'मम्मप' या कामदेव क्यो कहलायो? क्या बाहबलि शिलालेख मे भी उनको कामदेव कहा गया है। इसलिए कामदेव कहलाते थे? इसके उत्तर में कहना होगा-हो। श्रवण-बेल्गोल मे या अन्यत्र स्थापित उनकी विशाल जैनधर्मानुसार बाहुबलि इस युग के प्रथम कामदेव माने मतिया उसके (मम्मय के) तद्भवरूप 'गोम्मट' नाम से गये है। सस्कृत भाषा के 'मादि-पुराण' (१६९) मे, कन्नड प्रस्यात हुई है। 000
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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