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मैं रहूं पाप में प्राप लीन
0 पं० पचन शास्त्री, नई दिल्ली ममाणं बोवादो देहं पुग्गलमयं बुनितु मभी। माघारो को उनकी पूज्यता में कारण कहा जा सकता है? भाग संपयोतिको मये केवली भव ।।'
उक्त बातें तो पन्य बहुतों में भी हई, कामदेव पन्य भी
--समयसार, २८ हए, स्वाभिमान की रक्षा शक्ति भर अन्य बहुतों ने मी जीव से भिन्न, इस पुद्गलमयो देह की स्तुति करके की। इन सब बातों को करके भी वे सभी पूज्य न हो मनि वास्तव में ऐया मानता है कि मैन केवली भगवान सके । प्रतः बाहबली की पूज्यता में मूल कारण कोई अश्य की स्तुति की और वन्दना की।
ही होना चाहिए पोर वह कारण प्रलौकिक ही होना विभाव हमारा स्वभाव जैसा बन गया है। हम अपने चाहिए। जिन धर्म की दृष्टि से विचारने पर यह कारण को विभावरूप अनुभव करने के प्रयासी जैसे तो बन ही समक्ष प्राता है--उनकी वीतराग-परिणति तपा वीतरागगए है, पर हम अपनी पहम्मन्य चतगई समरो को भी परिणति मे साधन-मन कठोर तपश्चर्या । विभावरूपों के माधार से परखने है। कहने को हम यद्यपि अभिषक, तीर्थकर-सम्बन्धी पचकल्पाणकों में वीतराग की वीतरागता के पुजारी है, उनकी उपासना से उनके जन्मकल्याणक की एक किया का अनुकरण है। बोतराग के प्राश्रय से करते है, हमारा घमं वीतरागत। के बाहुबली तीर्थकर नही भोर उनकी ममि व परहत मूलाधार मे ही पनपा है। पर, हम वीतरागता की उपासना प्रवस्थाएं भी अभिषक योग्य नही तथापि बाइबली-प्रतिमा में वीत गगता से विपरीतसरागता मे मग्न होत है।
का अभिषेक प्रपना विशेष महत्व रखता है। ये पहिले ही इससे स्पष्ट होता है कि जिस विभाव को हमे छोड़ना कहा जा चुका है कि छपस्थ को सहारा चाहिए भोर वह चाहिए हम उसी में बढ़ होने का प्रयत्न करते है, जबकि सहारा पागामी महारे की दृष्टि से सुरक्षित भी रहना पाचार्यों ने मूर्ति को पाधार मात्र मान कर केवली को चाहिए । यदि सहारा रूप प्रतिविम्ब सुरक्षित न होगा तो बन्दना का संकेत दिया है, न कि मूति को प्राराधना का। उपस्थ को साधना ही समाप्त हो जायगी। भक्त, सहारे.
पाज म बाहुबली को अनुपम, प्राश्चर्यकारी, विशाल रूप मूर्ति के द्वारा मूर्तिमान को देखता है-मूतिमाम की प्रस्तरमूर्ति के सहस्रान्दि महामस्तकाभिषेक समारोह वीतराग प्रतिकृति का अपने मे साक्षात्कार करता हैमनाये जाने का उपक्रम है। इसके लिए हम जी-जान से
उनकी पूजा करता है। अभिषेक व्यवहार-पूजा का जटे है। जिस साक्षात् शरीर को भ. बाहुबली ने क्षण
प्रावश्यक प्रग है-इसके बिना पूजा अधूरी रहती है। यह
सब प्रधान रह जाय प्रत: अभिषेक पोर मति की भंगुर समझ छोडने का उपक्रम किया-~हम उसी के अनु
सुरक्षा सभी पावश्यक है। वाचार्य ने कहारूप स्थापना निक्षेप द्वारा स्थापित प्रस्तरभूत-मूति के
'तं पिछये जमविणसरीर गुणा हि होति मेलिनो। संवारने में लगे हैं। इसमें तप क्या है ? यदि इसे विचार
केलिगणं बनविबो सो त केलि पुति।।' तो सहज हो यह तथ्य सामन पायगा कि-चूकि हम
-समयसार, २९ उपस्प और नशक्त है, हमें भक्ति के लिए सहायक प्रव- मूति का स्तवन ठीक नही है (म मूर्ति के स्तवन का लनान वाहिए और वह अवलम्बन मूर्तरूप होना चाहिए। विधान है। स्तवन तो केवली-बीतरागी का किया जाता यत: पमूतं पात्मा में हमारी गति नही है प्रादि । हम है-केवली के गुणों का किया जाता है। परमार्थ सेशानी मृतकप प्रतिकृति के पाधार, प्रेरणा पाते हैं मोर वीतराग पुरुष, निमित्त के माश्रित होते भी मक्य बिन्दु केबलीकी वीतरागमा द्वारा प्रारमा का मनन-चितवन करते हैं। वीतरागी को ही बनाता है। क्योंकि-बीतराग के द्वारा
बाहुबली कामदेव थे, उनका दिव्य-शरीर स्वस्थ हो वीतरागता प्राप्त की जा सकती है। शरीर के गुणों सुडौल और अनुपम था, उन्होंने अपने स्वाभिमान को ठेस का वर्णन करने केवमी-बीतरागी की स्तुति नहीं महीपावी पर, क्या? बीतराग धर्म की दष्टि में उक्त होती