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________________ में पापमान पापा-पर की पहिचान पूर्वक पात्म-लाभ का उद्यम करे। वास्तव में जिस जीव के परमाण मात्र-लेशमात्र भी व्यवहारत: जैनागम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, रागादिक वर्तता है, वह जीव भले ही सर्वागम का पारी चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगो मे हो तथापि प्रात्मा को न जानता हमा वह मनात्मा को भी विभक्त है। इसमे कथाएँ है, लोक तथा जीवो के नहीं जानता। इस प्रकार जो जीव और मजीव को नहीं विविध भावो का वर्णन है, प्राचार-विधि है भौर षट्- जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? जो चेतयिता द्रव्यो का विस्तृत विवेचन है। पर, इस सब विविध कर्मों के फलों के प्रति तथा सर्व धर्म के प्रति कांक्षा नहीं प्रक्रिया मे मूलभूत प्रयोजन मात्र एक ही है-मात्म-करता उसको निष्काम सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। क्योंकि निरीक्षण, परीक्षण द्वारा प्रात्मावलोकन करना। यदि इतने सम्यग्दष्टि टकात्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयता के कारण सभी बड़े महामस्तकाभिषेक का उपक्रम कर भी हम प्रात्म-लाभ कर्मफलो के प्रति तथा समस्त वस्तु धर्मों के प्रति कांक्षा का न करें-ससार को ही बढ़ाएँ और बाहरी उठा-धरी में ही प्रभाव होने से निष्काक्ष है। लगे रहें तो इससे बड़ा हमारा दुर्भाग्य क्या होगा, कि इन स्वामी बाहुबली मे जब राग पौर कांक्षा का प्रभाव महापुरुष के पुण्यस्मरण को भी हम ससार में ही खोदें। हुपा, तभी उन्हें भगवान पद मिल सका । यद्यपि पागमा. कहने को सभी कहते है कि एक दिन मरण निश्चित नुसार उन्हे मिथ्यात्वरूप कोई शल्य नहीं थी तथापि जितने है, सब यही छट जायगा, मैं किसी का नही और कोई काल उनके परिणाम भरत पोर या अन्य किसी के प्रति मेरा नही। पर, इस सब कथनी पर बाहबली की भाति विद्यमान रहे-उन्हे दीक्षित होने वलम्बी तपस्या के कितने अमल करते हैं, यह देखना है ? जसे हम कितने बावजूद भी, केवलज्ञान न हो सका। अतः सबसे बड़ी पौष्टिक पदार्थो का और कितने परिमाण मे सेवन करते मावश्यकता इस बात की है कि हम प्रस्तुत महामस्तकाहै ? इसका मूल्य नहो । मूल्य उतने मात्र का है भिषेक के बहाने अशुभ से निवृत्ति कर शुभ-संकल्प लें और जितने पदार्थ हम सुखद-रीति से पा पाते है। वैसे ही क्रमश. उन शुभो के भी त्याग का विकल्प रखें। यही न बाह्य में हम कितना क्या करते हैं ? इसका मूल्य नही। वस्तु की शुद्ध विचार श्रेणी है-जिसे हमे प्राप्त करना। मूल्य उस तथ्य का है जिसे हम अपने अन्तर मे उतार लेते क्योकि हम अनादि से संसार भ्रमण मे व्यवहाररूप में हैं। यदि हम इस दृष्टि को लेकर चलग तो हमारा भ. सुखी भोर दुखी होते रहे है-पौर होते रहेंगे-कोई नई बाहुबली के प्रति सच्चा प्रादर-भाव होगा और उनके बात नही । हमे तो 'जो सुख भाकर न जाए' उस सुखको महामस्तकाभिषेक का उपक्रम सार्थक होगा। प्राप्त करना है मोर सुख को परिभाषा भी यही है। माशा जैन दर्शन में राग का नहीं विराग का, प्रवृत्ति का है भव्य जीव इस पुण्य अवसर से लाभ उठाएंगे पोर पर नही नित्ति का मूल्य है। भ० बाहबली ने ऐमा हो किया। को भार बढ़ेंगे। जरा विचारिए -क्या हम इन दष्टियों में ख उतरने का भ० बाहुबली वर्ष तक पडिग रहे, उम पर लताएँ किचित् भी प्रयत्न करते है ? क्या हम बाह्य दुव्यादि का चढ़ गई, दोमको ने बामियो बना ली, उनमें सपं रखने त्याग करके भी प्रकारान्तर से उसकी संभाल मे ही तो लगे। क्या इसका मूल्य है या ये ध्यानमग्न रहे इसका मूल्य नहीं लगे हैं ? हम पापो से निवृत्ति कर किन्ही बहानो से है ? ये गम्भीर प्रश्न है, जिसका उत्तर हमें सोचना है। सर्वथा-पुण्य प्रवृत्तियो मे ही लोन होना तो नहीं चाहते? प्रध्यात्मदृष्टि मे तो ये सब कुछ उपादेय नही चलेगा। हमारा त्याग नि:काक्षित तो है मादि । शास्त्रो मे तो वहां तो वह वात्म-ध्यान ही ग्राह्य होगा जिसन भरत. मनुज बाहुबली को साधक से सिना बिया, उनको 'परमाणु मित्तय पि रायावीणं तु विज्जवे बस्त । ससार से मुक्त करा दिया और जिस सबमें मूल निमित्त वि सो जाणवि अप्पाणं तु सबागमधरोनि ।' थी उनकी उत्कट अन्तरग भावना'बोदुनकरेवि सं कम्मलेसु तह सम्बषम्मेसु । 'मैं रहं भापमे माप लीन।' सो निक्कसो वा सम्माविट्रो मुयम्बो।।' -वीरसेवामदिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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