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________________ जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा - डॉ० प्रादित्य प्रचण्डिया दोति' सूर्योदय हपा । चक्रवती भग्त मौर पराक्रमी बाहु- भरत ने दहमष्टि से बाहबली की छाती पर प्रहार किया। वली पुष्पों से उपचित रणभूमि मे मा गये। सारा तारापय रोष प्राकाश में बाहुबली की प्रखि बिकगल हो गई। देवतामों से भर गया। भरत और बाहुबली के मस्तको नाका उच्छवास की वाय से भर गई। बाहवली तक्षक पर किरीट शोभित हो रहे थे। दोनो महान प्रतापी प्रपने की भाति फुफकारने लगे। उन्होने भरतको उठाकर शरीर पर कवन धारण किए हुए थे। दोनों एक ही प्राकाश में फेक दिया। भगत यावाश में इतनी दूर उछले जयलक्ष्मी का वरण करने को ममृत्सुक थे। देवताकुल कि दीखने बन्द हो गए। बाहुबली का मन अनुताप से परम्पर विजय मंभित वितकंणा कर रहे थे। भर गया, नानाविध सकल्पों में उलझ गया। इतने में ही बिगुल बजा । 'दृष्टियुद्ध' प्रारम्भ हुमा। दोनो महाभरत प्राकाशमार्ग मे दीख पढ़। बाहबली ने उन्हें अपनी बलियों की उत्साह मे मगनोर प्रॉम्बै कहरि की भांति एक भुनामो से झल लिया । भरत क्रुद्ध हा गए। जीत बाह. दूसरे को घर रही थी। भीगी पलको के अन्तराल में बली की हई। तागयें उब रही थी। देवना, मनुष्य मोर किन्नर परस्पर मन मे 'मल्लयद्ध' की बारी थी। युद्ध प्रारम्भ हुमा। में प्राइवयं प्रशन कर रह थे । प्रहर बीत चला। जिस भरत के तीन प्रहारो से बाहबली टवने-घटने तक भमि में प्रकार दिवावसान मे भासार रश्मिया मंद हो जाती उसी धंस गए । उन्होन पुन, प्रहार करना चाहा लकिन बाहु. प्रकार भरत की अग्वि धान्त हो गई। भगत हार गए। बली सभल चके थे। उन्होने भरत पर प्रहार किया। भरत गले तक भमि में चंस गए। भरत बड़ा गए। हस्तियों के मिहनादो म कुनर मृग-सदा सत्रम्त हो गए। भयभीत वल्लरिया वृक्षो से जा लिपटी और कान्तायें मन उनका विन्न हो गया। उन्होंने बार-बार सोचा किया अपने प्रियतमो से प्रालिगित हुई। मृगेन्द्र अपने गह्वर में कि यह मैंने क्या किया? शरद के चन्द्रमा मा निकलक जा छिपे। भुजगमो ने नागलोक का प्राश्रय ले लिया। पूज्य पिता का वश और मझ द्वारा किया गया कलंक सम्पूर्ण जगतीतल शब्दमय, अतिशय पातकमय हो गया। से पकिन कम । मैं जानता हम भी गद कोडापो में मेरी यद्यपि भरत का सिंहनाद चहु पोर ध्वन्यायित हुप्रा विजय हई है नथापि घरणी के लिए अग्रज को मारना तथापि बाहुबली के मिहनाद से वैसे ही ढका जा रहा था उचित नही है। इधर बाहुबको स्वात कथन में निमग्न. जैसे समुद्र में मिलने वाला नदी का प्रवाह उदधि-कल्लोलो मंलग्न थे उधर वातावरण म-विहम उठा। विजयी से पाच्छन्न हो जाता है। भरत श्रम में थक गए। क्षण- दुन्दुभि बज उठी। नकिन भरत पनी पगजप को भर मा बन्दकर वह विधामा विराज गए। बाहवली वीकार नहीं किया। वह बाहुबली मेल-- "अनुज मन ! विजयी हुए। प्रभो भी प्रणिपात करना, अर्थ ही क्यो मरहा। अपन ___ तदनना मुष्टियुद्ध' हेतु दोनों भुजवलियों ने अपनी भुजबल क प्रहं का छोड दी। दखो, मरदानचक्रकी अपनी मट्ठियां तान ली। मदोन्मा हाथी की तरह क्षय- अग्नि मे नप्त-उत्तानहाकर राना कही भी मुख नहीं पा कालीन वारवाचक्र की तरह उछलते हुए एक दूसरे के मके, फिर तुम क्या हो?" सामने खड़े होकर परस्पर जायें उठा ली। कुपित हो भरन की वाणी सुन बाहबली कुपितहा और गोले
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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