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ऋषभदेव : सिन्धु-सभ्यता के प्राराध्य ?
0 श्री ज्ञानस्वरूप गुप्ता
मोहनजोदडो व हडप्पा, विश्व के सबसे प्राचीन इन दोनो धर्मों को छठी शताब्दी ईसा पूर्व से अधिक नगर, विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मिन्धुघाटी सभ्यता प्राचीन न मानते हुए उन्होंने मिन्धु घाटी सभ्यता के के पादि केन्द्र थे। ईमा से ३००० वर्ष से भी अधिक माराध्य देव शिव या कद्र को माना है। परन्तु इन मद्रामों पहले ये समृद्धिशाली थे। इनके नागिरिको को सस्कृति
पर अन्य कोई चित्र शिव या रुद्र से सम्बन्धित नही पाया धम, राजनीतिक रूप क्या था यह भाज भी रहस्य मेहुबा गया व इस तरह एक सूत्र में मम्बद्ध नही हो पाया। अब हुपा है यद्यपि पुरातत्त्ववेत्तानो के ग्राह्वान पर इन्होने । जो तथ्य सामने प्राये है जिनमे उपरोक्त मद्रायें भी शामिल लगभग ढाई हजार मिट्टी की बनी हुई पाग में तपो हुई है, यह पता चलता है कि कदाचित् ऋषभदेव उपादेय मद्रायें उपलब्ध की है जिन पर तरह-तरह के चित्र व दृश्य
व उनको पाराधना ही प्राचीन भारत का धर्म था जो बने हुए है। इन मद्रामों से भारतीय जीवन में रम हुए धर्म ईमा पूर्व छठी शताब्दी में महावीर व गौतम बुद्ध के धार्मिक चिह्न प्रोम्, स्वस्तिक, नवग्रह व वह चिह्न जिस अनुयायियों में बँट गया, व मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ दशहर या दीवाली पर सम्पूर्ण उत्तरी भारत में प्राट या
ही वह भी ममाप्त हो गया। उसका स्थान लिया वैष्णव गोबर से बनाकर पूजा जाता है और जिसे अयोध्या का
धर्म ने, जिम पूज्य देवता वामनावतार अदिति के पुत्र प्रतीक माना जाता है, प्रचुरता से पाये जाते है। त्रिविक्रम विष्ण थे जो जन भाषा मे विक्रमादित्य कहे जाते
इतना होते हुए भी इतिहासज्ञ इम सभ्यता का है। इस प्रकार इन धर्मों का क्रम उल्टा मानने से जैन धर्म भारतीय सस्कृति, धर्म व मभ्यता का मूल माधार मानन प्राचीन हो जाता है और उसके मूल सिद्धान्तो की झलके को इसलिय तयार नहो थे क्योकि इन मुद्रामो पर प्रकित मिन्धघाटी मभ्यता की उत्खनित मद्राओं पर एक ही सूत्र चिह्न व दष्य एक-दूसरे से सम्बद्ध प्रतीत नहीं होते थे। मे सम्बद्ध पाई जाती है। प्राइये, इन मद्रामों पर चित्रण उनका मानना है कि यह सभ्यता कोई अन्य मभ्यता थी, का अध्ययन करें। जिमे १८वी शताब्दी ईमा पूर्व में बाहर से पान वाली सिन्धुघाटी सभ्यता के क्षेत्र से निकली हुई मुद्रामो में प्राय जानि न समाप्त कर दिया। परन्तु अब कुछ एम नथ्य स मोहनजोदडीस निकली मुद्रा नम्बर ४२० (फरदर सामने गाये है व इन मद्रानी के चिह्नो का पुनः अध्ययन एक्सकॅवेशन गट मोहन जोदडो) इस रहस्य की कुजो है। करने में पता लगता है कि इन मुद्रामा पर प्रनको चित्र प्रतः इसी को प्राधार मानना उचित रहेगा। इस मद्रा पर भगवान विष्णु के अवतार व जैनधर्म क प्रथम तीथकर एक देवी पुरुष को प्राकृति है जिसके सिर पर सिगो के ऋषभदेवकी के कथानक की मुख्य घटनायें-श्री ऋषभदेव।
प्राकार का एक मकुट है। शरीर के ऊपरी भाग में कोई का चित्र, उनक ज्ञान प्राप्ति के बाद का प्रथम भाषण
वस्त्र या कवच पहना हुमा है जो ताड़ के पत्ते का भी (समवसरण), उनके पुत्र मम्राट भरत का बाल्यकाल का
प्राभाम देता है। देखने से इसका मुख कुछ विचित्र प्रकार चित्र भी इसमें पाया जाता है। इस कयानक का देखने
का नजर पाता है। सर जोन मार्शल,(जिनकी देखरेख मे. से यह मभ्यता न केवल रहस्यमय युग से बाहर मा जाती हडप्पा और मोहनजोदडो का उत्खनन हुमा था) का है, परन्तु भारतीय इतिहास के पन्धकारमय युग को भी
विचार है कि इस चित्रण मे वह व्यक्ति है जिसके तीन मुख मालोकित कर देती है ।
है। केदारनाथ शास्त्री, जो हड़प्पा के उत्खनक रहे है, का ऋषभदेव का चित्रण
विचार है कि यह एक पशु मुख है, शायद भैसे का । देखने भारतीय इतिहासज्ञ इस बात को मानकर चलते थे से यह पशु मुख नजर पाता है परन्तु भैसे का न होकर कि वैदिक युग की हिंसामो को देखकर व उनसे दया से बल का मुख प्रतीत होता है। यह व्यक्ति एक मासन पर प्रेरित होकर जैन धर्म बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुमा, प्रतः बैठाया गया है जिसके तीन या चार पाये हो सकते हैं।