________________
३०,३३,०३
ब्राह्मण वर्ग यज्ञ-विधि को अपने एकाधिपत्य में रखना चाहता था। उस समय मंदिक मन्त्रराठ और विधि-विधान ब्राह्मण-वर्ग की अनिवार्यता को स्पष्ट सूचित करता है।
जैन धर्म इस मान्यता के विरुद्ध है। जैन-धर्म के धनुसार स्याग, तप प्रादि द्वारा ही उन्नत स्थान को प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः यह मनुष्य का वास्तविक मार्ग-दर्शन करता है। वैदिक धर्म में को वेद पाठ करने के लिए मनाही है परन्तु जैन शास्त्र को सुनने-पढ़ते के लिए मनाही नहीं है। जैन धर्म में धर्मकार्य के माचरण मैं पुरुषोंकी ही तरह स्त्रियों को मो पूर्ण अधिकार प्राप्त है। वेदाध्ययन में शब्दों को महत्व प्राप्त होने से वेद-मन्त्र रक्षित होकर संस्कृत भाषा को महत्व प्राप्न हुधा पर जैनों में शब्दों की अपेक्षा पदार्थों को महत्व दिया गया । इसलिए जैनों में धर्म के मौलिक सिद्धान्त रक्षित होने पर भी शब्द रक्षित नहीं हुए। इसके अलावा जैन लोग सस्कृत भाषा को अधिक महत्व देते रहे। प्राकृत भाषा प्रपनी प्रकृति के अनुसार सदा एक ही रूप में नहीं रह सकती है। अर्थात यह बदलती रहती है।
वैदिक-संस्कृत उसी रूप मे बाज भी वेदों में उपलब्ध है उपनिषदों के पूर्व वैदिक धर्म मे ब्राह्मणों का प्रभुत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । जन-धमं मे प्रारम्भ से ही क्षत्रिय लोग प्रमुख स्थान प्राप्त किए हुए दृष्टिगोचर होते है परन्तु उपनिषद्कालीन वैदिक धर्म मे ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों को प्रमुख स्थान प्राप्त दृष्टिगोचर होता है । उपनिषदों में प्रात्म-विद्या को प्रमुख स्थान प्राप्त था । यहां पर वस्तुतः ब्राह्मणों पर क्षत्रियों का प्रभुत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
वैदिक धर्म और जैन धर्म में दृष्टिगोचर होने वाले इस विरोध को देखकर प्रारम्भ में कतिपय धाधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने बौद्ध धर्म की तरह जैन-धर्म को वैदिक-धर्म का विरोधी एक क्रांतिकारी नूतन धर्म लिखा है इतना ही नहीं, जैन-धर्म को बोद्ध-धर्म की शाखा के रूप में भी कहा। परन्तु जैन-धर्म पर बौद्ध-धर्म के मौलिक साहित्य का अध्ययन करने के उपरान्त उन पाश्चात्य विद्वानों ने ही इस भ्रांति को दूर कर दिया है। भाज अध्ययनशील दूरदर्शी पाश्चात्य और भारतीय विद्वान न धर्मको वैदिक धर्म से भिन्न एक स्वतन्त्र धर्म
अनेकान्त
मानने लगे हैं। हो, प्राज भी कतिपय विद्वान कभी-कभी उस पूर्वोक्त राग को प्रलापते हैं।
हम प्राचीनता के पक्षपाती नहीं है। क्योंकि वस्तु प्राचीन होने से हो निर्दोष नहीं होती है । उसका निरूपण यथार्थ रूप में होने पर ही वह निर्दोष होती है। बाहर से भारत में भागत पायें लोगों को जिस धर्म के साथ लड़ना पहा, उस धर्म का विकसित रूप ही जैन-धर्म है। यदि वेदों से हो जैन-धर्म विकसित हुआ होता प्रथवा वैदिकधर्म के विरोध में जैन-धर्म का जन्म हवा होता, तो वेद को प्रमाण मानकर वेद विरोधी बातों का प्रचार करने का कार्य अन्य वैदिक धर्मों की तरह जैन-धर्म भी करता रहता । परन्तु जैन धर्म ने ऐसा नही किया है। यह वेदनिन्दक कहलाकर नास्तिक धर्म कहलाया। जैन धर्म ने कभी भी वेद को प्रमाण रूप में स्वीकार नही किया । ऐसी परिस्थिति में जैन धर्म को वैदिक धर्म की शाखा मानना बिल्कुल भूल है । सत्य परिस्थिति इस प्रकार हैं- वैदिक पायें पूर्व की घोर बढ़ते हुए भोतिकस्व को त्यागकर माध्याम की घोर जाने लगे। इसके कारण को खोजने पर हमे यह बात विदित होती है कि प्रायं लोग संस्कारी प्रशामों के प्रभाव से प्रभावित होकर अपने पूर्व की रीति को स्वागने लगे यह विषय हमें उपनिषदों की रचना मे स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उपनिषदों मे वेद के विरुद्ध मान्यताए दृष्टिगोचर होने पर भी वे वेदों के अंग होकर वेदांत के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
उपनिषदों की रचना के बाद दार्शनिक वेदों को एक घोर रखकर उपनियों के द्वारा देव को प्रतिष्ठा को बढाते गये । उस समय वेदो मे भक्ति रहने पर भी निष्ठा मात्र उपनिषदों में ही रही । एक जमाने में वेद का भयं गौण होकर उसकी पनि ही रह गई। पूर्व भारत के प्रज्ञाओं का संस्कार ही वेदों के हस्र का कारण हुधा, यह कहना गलत नहीं होगा ।
जैन धर्म के सभी प्रवर्तकों ने प्रायः पूर्व भारत में हो जन्म लिया है। पूर्व भारत ही न धर्म का उद्गम स्थान रहा है। जैन धर्म ने ही वैदिक धर्म को नवीन रूप धारण करने के लिए विवश किया होगा तथा हिंसक घोर भौतिकधर्म के स्थान पर हिंसा घोर प्राध्यात्मिक का पाठ पढ़ाया होगा । (शेष घावरण पृ० ३ पर)