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वैदिक और जैन-धर्म एक तुलनात्मक विश्लेषण
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वैदिक धर्म और जेत-धर्म को तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर प्राचीन जैन साहित्य मे प्राप्त जैन-धर्म का स्वरूप वेदों मे प्राप्त वैदिक धर्म से अत्यधिक सुसंस्कृत मालूम पडता है । वेदों मे प्रतिपादित इन्द्रादि देवताओं का स्वरूप और जैनों के प्राराध्य देव जिनेश्वर का स्वरूप- इन दोनों को विचार कर देखने पर वैदिक देवता सामान्य मनुष्यो से अधिक शक्तिशाली मालूम पड़ने पर भी वृत्ति को दृष्टि से हीन ही प्रतीत होते है ।
मानवों में घासानी से दृष्टिगोचर होनेवाले काम, क्रोध, राग पोर द्वेष प्रादि दोष वैदिक देवनाओं में प्रचुर परिणाम मे प्राप्त होते है, परन्तु जैनो के प्राराध्य देवों मे ये सब दोष बिल्कुल नहीं है। वैदिक देवनाओ का पूज्यश्व किसी भी प्रकार की प्राध्यात्मिक शक्ति से न होकर, नाना प्रकार के अनुग्रह-निग्रहो के कारण से ही प्राप्त है। जैनो के प्राराध्य जिनेश्वर इस प्रकार की किसी भी शक्ति के द्वारा पूज्य न होकर वीतराग गुण में ही निहित प्रदर भाव ही भाराधक को अपने आराध्य की पूजा के लिए प्रेरित करता है। वैदिक धर्म मे ऐसा नहीं है। उसमे वैदिक देवताओं का भय ही माराधक को उनकी प्राराधना में प्रेरित करता है । वैदिक लोगो ने यद्यपि भू-देवता अर्थात् ब्राह्मणों की कल्पना तो की है अवश्य, परन्तु कालक्रम से वे स्वार्थी हो गये। यह दोष जैन-धर्म मे मो दृष्टि गोचर होता है क्योकि बाद में ब्राह्मणो को अपन पौरोहित्य की रक्षा ही मुख्य रही।
वैदिक धर्म मे धार्मिक कर्म-काण्ड-रूपी यज्ञ ही प्रधान रहा ये बज प्राय पशु-हिंसा के बिना पूर्ण नहीं होता था। जैन धर्म मे धनशन आदि बाह्य भौर प्राभ्यन्तरत हो प्रधान कर्मकाण्ड है। इसमे अर्थात् जैन धर्म के हिसा का नाम ही नहीं है । वेदक यज्ञ देवताओ को सतुष्ट करने के लिए ही किया जाता था। जंगमं मे धार्मिक अनुष्ठान केवल ग्रात्मवर्ष के लिए ही किया जाता है। जैन लोग किसी भी देवता को सतुष्ट करने के लिए कुछ नहीं करत है, क्योंकि उनके द्वाराध्य देव शेतरागी है। वह केवल
1 पं० के० भुजबली, शास्त्री
अनुकरणीयरूप में ही धाराध्य है। जंनों मे इस समय प्रचलित कुछ कर्मकाण्ड बहुत बंदिक धर्म के धनुकरण मात्र है। ये सब जैन-धर्म के मूल सिद्धान्त के प्रति
कूल है ।
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वैदिक लोगों ने नाना प्रकार के इन्द्रादि देवताओं की कल्पना की थी, जो तीन लोकों मे ही विद्यमान है। देवता मनुष्य से भिन्न होकर मनुष्य वर्ग के लिए धाराध्य बने हुए थे परन्तु जंन लोग देव वर्ग को मनुष्य-वर्ग से मिल भिन्न मानन पर भी उन्हें पाराध्य नहीं मानते है, जंनों से भी कतिपय व्यक्ति कुछ देवताम्रों को अवश्य पूजते है, किन्तु वह केवल भौतिक उन्नति को ही दृष्टि से है, प्राध्यात्मिक उन्नति को दृष्टि से नहीं ।
जैन धर्म मे स्वीकृत वीतरागी मनुष्य की कल्पना देवताओंों को भी मान्य भौर प्राराध्य हैं। देवता भी उस मनुष्य की सेवा करते है सारांश यह है कि जैन-धर्म देवताओं की अपेक्षा मानव की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए भागे भाया है ।
वैदिक धर्म मे इस विश्व का निर्माण अथवा नियन्त्रण ईश्वर के द्वारा माना गया है। इसके प्रतिकूल जैन सिद्धान्त विश्व का निर्माण और नियंत्रण ककर्म के ि
किसी व्यक्ति को नहीं मानता है। इस मदाग को भगवद् गीता भादि कतिपय वैदिक ग्रन्थ भी मानते हैं ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने पर अनेक जटिल प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिनका यद्यपि उत्तर नहीं मिलता है। यह विषय प्रादिपुराण' बादि पुराणकम्बो मे तथा सही प्रमेयकमलमार्तंड श्लोकवातिकादि पाय-यों मे विवाद में विति है।
बेदी के उपरान्त ब्राह्मण-काल मे देवताओ के लिए यज्ञ प्रधान कर्म बन गया । उस काम मे पुरोहित ने क्रिया के महत्व को बहुत बढ़ा दिया। इस इच्छा न होने पर भी देवलोग अनिवार्य रूप मे विधि युक्त यज्ञों मे परवड हो गये। एक प्रकार से यह देवताथी पर मनुष्यों को विजय थी। किन्तु इसमें एक शेष प्रवश्य था। वह यह कि