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________________ महान् विद्वान् हर्षकोति को परम्परा श्रीप्रगरचन्द नाहटा,बीकानेर १७वीं शती के महान एवं नागपुरीय तपागच्छ के ४४. श्री वादिदेवसूरि ११७४ वर्ष ८४ बाद घेता विद्वान हर्षकीतिसूरि सम्बन्धी मेरा लेख पहले पनेकान्त में ३१ हजार श्रावक प्रतिबोधक छपा था, उसे काफी वर्ष हो गये। इधर 'श्रमण' के ४५. श्री पपप्रभ सूरि भुवन दीपक अन्यकर्ता अक्टूबर ७६ के अंक में हर्ष कीतिसूरि रचित घातु तरगिणी ४६. श्री प्रसन्नचन्द्र इतनागपुरी तपागच्छ शाला नामक मेरा लेख प्रकाशित हमा है। इसमे जो हर्षकीर्ति ४७. श्री गुण समृद्रसरि सूरि से पूर्ववर्ती प्राचार्यों में जयशेखर मूरि से परम्परा ४८. श्री जयशेखरसूरि स० १३०१ वर्ष १२ गोत्र भारम्भ की है. इस सम्बन्ध में खोज करके उनके पहले प्रतिबोषक लोढ़ागोत्र कर्मग्रन्यकर्ता पीछे की प्राचार्य परम्परा पर कुछ प्रकाश डालना ४६. श्री अजसेनसरि स. १३४२ वर्ष पाचार्य. पावश्यक समझता हूं। वैसे श्री नागपुरीय 'बहत-त । हजार प्रतिबोषक, सारग भूपेन देशनाजशो गुर्जर देशः । गच्छोय पट्टावली' नामक गुजराती प्राय सन १९३८ मे ५०. श्री रत्नशेख र सूरि १३८२ वर्ष महमदाबाद से प्रकाशित हुप्रा है, उसे देखा पर उसमें ठीक ५१. श्री हेमतिलक सूरि सं० १३६६ सिक से विवरण मिला नही । हैम हमसूरि के बाद तथा पट्टावली पेरोजशाहेन परिघापति ढिल्यालोदा गोत्र। इसमें परम्परा ही बदल जाती है। इसका सम्बन्ध वास्तव ५२. श्री हेमचन्द्राचार्य में पावचन्द्रसूरि व उनके बाद के प्राचार्यों से है। हर्षकीति ५३. बीपूर्णचन्द्र सूरि सं० १४२४ वर्ष होमणगोत्र सूरि ने भी 'धातुतरंगणी की प्रशस्ति में जो अपनी परंपरा ५४. श्री हेमहंसमरि स. १४५३ खण्डेलवाल जाती. के नाम दिये हैं, वे भी क्रमिक एवं पूरे नहीं हैं। बीच-बीच यतशिष्य गणि लोढ़ा गोत्र सं. जिणदेव संस्थापित में प्रसिद्ध उपाध्याय व प्राचार्यों का विवरण देना ही उन्हें ५५ श्री रत्नसागराचार्य दुगड गोत्र अधिक उचित प्रतीत हुमा लगता है। इसलिए मैंने अपने ५६. श्री हेम समुद्र सूरि १४९६ चित्र कटे संस्थापित प्रन्यालय को एक अन्य पट्टावली देखी तो उसमें हर्षकीति ५७, श्री हेमरत्नसूरि १५२६ वर्ष लोनी गोत्रीय सूरि पाचार्य परम्परा के ५७ श्लोक हैं. और इसके ५८. भगवान श्री सोमरस्नसरि स. १५४२ वर्षे बाद अन्य में मारकी परम्परा के प्राचार्यों के नाम एवं सेठिया सोनी गोत्र उनका संक्षिप्त विवरण गद्य रूप में लिखे हुये मिले। इस ५६. भगवान श्री राजरत्नमरि सं० १५७४ वर्षे पट्टावली के नामों से सुप्रसिद्ध वादिदेव मूरिका क्रमांक ४४ जेतवाल जातीय गोत्र सार एवन है। 'नागपुरीयतपाशाख।' उनके बाद से ही प्रसिद्ध हुई। ६०. भगवान श्री चन्द्रकीसिरि सं० १५८६ तिमी. क्योंकि सं १२०४ में जगतचन्द्र सूरि को तपा विरुद मिला रेचा बहतगोत्रि जब से उनकी परम्परा तपागच्छ के नाम से प्रसिद्ध होने ६१. भगवान श्रीमानकीति सरिसं० १६२४ वर्षे लपी। अतः देवसूरि और उनकी परम्परा का मुख्य निवास पोरवाह पद्यावती गो नागोर में होने से ही उनकी नागपुरीय गच्छीय का 'तपा- ६२. भगवान श्री हर्ष-कोति सरि पंड मिया, पउपरी गल्छीय' पसनवम्बसूरि से प्रसिद्ध हो गया। वादीदेव. सं. १६४३ वर्ष सरिसे इसकी पौर माचार्य नामावली प्राप्त हुई है, उसे ६३. भगवान श्री अमरकीतिसरि १६४३ वर्षे प्राचार्य हो वहां रियामा रहा। परम्परा
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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