________________
३९, वर्ष ३३, कि० 1
इनमें से १४वें पटचर हेमहंससूर के बाद पार्श्व चन्द्र सूरि वाली शाखा मलग हो जाती है। उसका भी १७त्री शताब्दी तक का जो विवरण ६ पट्टावली में दिया है, उसे नीचे दे रहा हूं। क्योंकि पायचन्द्र गच्छ की पट्टावली मयो ममी निवास पुरन और साघुरन इन तीनों के धागे 'सूरि' शब्द लगा दिया गया है, वास्तव में मुझे प्राप्त पट्टावली के अनुसार ये तीनों ही प्राचार्य नहीं थे । इस पट्टावली में से पञ्चवड पट्टावली में तो हर्षकीर्तिपुर तक के नाम है। उसके बाद के नाम नहीं है और पाश्चन्द्र सूरि की परम्परा में भी विमलचन्द्र सूरि के स० १६६८ में प्राचार्य पद मिलने तक का ही उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट है कि यह पट्टावली स० १६७४ से पहले की लिखी हुई है। नही तो इसमें १६७४ विमलचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हथा, उसका भी उल्लेख अवश्य रहता । धतः इस पुरानी पट्टावली में लक्ष्मीनिवास पुण्य रत्न थोर साधुरश्न के नामो के धागे 'सूरि' पद नही दिया है, पर उन्हें 'प०' ही लिखा है। मतः वह ही प्रामाणिक है। पट्टावली में इसका विवरण इस प्रकार है
५५. श्री लक्ष्मीनिवास पंडित शिष्य ५६. श्री पूण्यरत्न 'सर्व' विद्या विशारद १७. भी साघुरन पण्डितोतयः
५८. श्री पाश्वं चन्द्र सूरि-पोरवाड़ जातीय सं० १५२७ जनक हमीर पुरे ० १५४६ महात्मा पोसालम. हि दीक्षा सं० १५६५ किया मघरी सं० १६१२ मागसिर सुबि ३ स्वर्ग जोधपुरे श्री पासवान द्याचार्य पद में १५७७ में संसणपूरे मुठ जातीया मंत्री विकई पद प्रतिष्ठा की थी ५६. श्री समरचन्द्रसूरि श्री श्री माली जातीय पिता दोसी भीमा माता वल्लावे सं० १५६० जन्म पाटनि पौराणि मार्गतिर सुदि इग्यारस दिने सं० १५७५ दीक्षा सं० २५९९ 116112 पद समखगपुरे मान वापरोद प्राचार्य पद सं० गीले महोछव की घोंस १६२६ जेठ वदी १ टीस्प
का
६०. श्री रामचन्द्र सूरि-सं० १९०६ भादवा वदी १ जन्म घाबू नपरे पिता दोशी जावड़ माता कमला दे सं० १६२६ दीक्षा स्तम्भ तीर्थ प्रथमाचार्य पद सं० १६६६ स्तंभ तो निर्वाण ।।
६१. श्री विमलचन्द सूरि-सं० १६४६ जम्म प्रसाठ सुदि ६ सं० १६५६ वर्षे ज्येष्ठ मासे दीक्षा वैसाख सुदि ३ सं०.१६६१ प्राचार्य पद स्तम्भ ती सा० इन्द्रचन्द्र जी पद प्रतिष्ठा श्री हर्षकीर्तिसूरि वैसे तो सारस्वत दीपिका के कर्ता चद्रकीतिरि के शिष्य थे पर चन्दकीर्तिसूरि के
पट्ट पर भानकीर्तिसूरि स्थापित हुये । उनके बाद स० १६४३ मे हर्ष कीर्तिसूरि प्रोर इसी स० में उनके पट्ट पर अमरकोतिसूरि श्राचार्य पद स्थापित हुये । यह उपरोक्त पट्टावली से मालूम होता है। हर्ष कोर्तिरि चंडालिया या चौधरी वंश के थे। यह भी इस पट्टावली से ही जानकारी मिली है। इनके पट्टधर भ्रमर कीर्तिसूरि ने कालिदास के सहार काव्य की टीका बनाई है। हर्षकीर्ति सूरि के सम्बन्ध मे मैंने एक खोजपूर्ण लेख (धनेकान्त) के मई जून सन् १९५० के अंक में प्रकाशित करवाया था। इसमें मैंने इनका जन्म सवत्, जैनदीक्षा उपाध्याय व सूरि पद के समय के सम्बन्ध मे लिखा था कि हकीर्ति के लिखी हुई सं० १६१३ की सप्तपदार्थों को प्रति उपलब्ध है । भ्रतः इनका जन्म सं० १५६० से १५६५ के बीच होना चाहिये और दीक्षा छोटी उम्र में ही हुई लगती है अतः सं० १६०५ से १० के बीच हुई होगी। सं०] १६२९ की प्रति में इनके नाम के साथ 'उपाध्याय' पद विशेषण पाया जाता है । अतः इससे पहले वे अच्छे विद्वान बन चुके थे । धतः उन्हे उपाध्याय पद दे दिया गया था। सं० १६४३ में इनको प्राचार्य पद मिला। यह उसके बाद की मिली पट्टावली से सिद्ध है । पर एक समस्या रह जाती है कि प्राप प्राचार्य बने उसी समय धमरकीतिरि को अपने पद पर उन्हें पट्टधर के रूप में कैसे प्रतिष्ठित कर दिया। क्योंकि आपके लिखवाई हुई प्रति सं० १६६० की उपलब्ध है और भापकी मम्तिम रचना 'सेड प्रनिट्कारिका वृत्ति' हमारे संग्रह में है । जिसकी प्रशस्तिः के अनुसार इसकी रचना सं० १९६३ के ज्येष्ठ सुदि में हुई है । यथा
-
राम ऋतु-रस भूष ज्येष्ठ वल पक्ष तो सेनिकारिका कारि- हर्ष कीर्ति मुनीश्वरः ॥२१॥ इससे इकीतिसूरि सं० २६६३ तक विद्यमान थे, सिद्ध होता है। तब इससे २० वर्ष पहले ममरकीति को