________________
भगवान महावीर को मध्यात्म-देशना
तू अपने स्वभाव की पोर लक्ष्य नहीं करता है तो इस को प्रमुख तथा दूसरे को गौण कर विवक्षानुसार क्रम से सयोगज दशा भोर तज्जन्य विकारो को दूर करने का तेरा ग्रहण करता है । नयों का विवेचन करने वाले पाचार्यों ने पुरुषार्थ कैसे जागृत होगा?
उनका शास्त्रीय -मागमिक मोर प्राध्यास्मिक दृष्टि से ज्ञानी जीव, कर्म नौकर्म मोर भावकर्म से तो
विबेचन किया है। शास्त्रीय दृष्टि की नय विवेचन में मात्मा को पृथक् अनुभव करता ही है, परन्तु ज्ञेय ज्ञायक
नय के द्रव्याथिक तथा उनके नंगमादि सात भेद निरूपित भोर भव्य भावक भाव की अपेक्षा भी भात्मा को ज्ञेय
किये गये हैं और माध्यात्मिक दृष्टि को नय विवेचना में तथा भव्य से पृथक अनुभव करता है। जिस प्रकार दर्पण
उसके निश्चय तथा व्यवहार भेदों का निरूपण है। इस अपने मे प्रतिबिम्बित मयूर से भिन्न है उसी प्रकार मात्मा,
विवेचना मे द्रव्याथिक मोर पर्यायापिक, दोनों ही निश्चय अपने ज्ञान मे माये हए घट पटादि ज्ञेयो से भिन्न है मौर
मे समा जाते हैं और व्यवहार में उपचार कथन रह जिस प्रकार दर्पण ज्वालामो के प्रतिबिम्ब से संयुक्त होने
__ जाता है। पर भी तज्जन्य ताप से उन्मुक्त रहता है इसी प्रकार
शास्त्रीय दृष्टि में वस्तुरूप की विवेचना का लक्ष्य भात्मा, अपने मस्तित्व में रहने वाले सुख-दुःख रूप कर्म
रहता है और पाध्यात्मिक दृष्टि मे उस नय-विवेचना के के फलानुभव से रहित है। ज्ञानी जीव मानता है कि मैं'
द्वारा प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का अभिप्राय निश्चय से एक हूं, शुद्ध हू दर्शन ज्ञान से तन्मय हू, सदा
रहता है। जिस प्रकार वेदान्ती ब्रह्म को केन्द्र में रखकर मरूपी ह, अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है। ज्ञानी
जगत् के स्वरूप का विचार करते हैं उसी प्रकार यह भी मानता है कि ज्ञान दर्शन लक्षण वाला एक
प्रध्यात्मिक दृष्टि प्रात्मा को केन्द्र में रखकर विचार शाश्वत प्रात्मा ही मेरा है, संयोग लक्षण वाले शेष समस्त
करती है। इस दृष्टि में शुद्ध-बुद्ध एक पात्मा ही परमार्थ भाव मुझसे बाह्य हैं।
सत् है भोर उसकी अन्य सब दशाएं व्यवहार सत्य है। इस प्रकार के भेद विज्ञान की महिमा बतलाते हुए इसलिए उस शुद्ध-बुद्ध प्रात्मा का विवेचन करने वाली भी प्रमुतचन्द्र सूरि ने समयसार कलश मे कहा है- दृष्टि को परमार्थ भोर व्यवहार दृष्टि को अपरमार्थ कहा
भेदविज्ञानत: सिद्धा सिद्धाः ये किल केचन । जाता है। तात्पर्य यह है कि निश्चय दृष्टि प्रात्मा के घर तस्यैव भावतो बद्धा-बद्धा ये किल केचन ॥
स्वरूप को दिखलाती है भोर व्यवहारदृष्टि अशुद्ध माज तक जितने सिद्ध हए है वे भेदविज्ञान से ही स्वरूप को। सिद्ध हुए हैं और जितने संसार मे बद्ध है वे सब भेद
अध्यात्म का लक्ष्य शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करने विज्ञान के प्रभाव से ही बद्ध है।
का है, इसलिए वह निश्चय दृष्टि को प्रधानता देता है। अध्यात्म और नय व्यवस्था
अपने गुण पर्यायों से प्रभिन्न प्रास्मा के कालिक स्वभाव वस्तुस्वरूप का अधिगम-शान,प्रमाण पोर नय के को ग्रहण करना निश्चय वृष्टि का कार्य है और कर्म के द्वारा होता है। प्रमाण वह है जो पदार्थ में रहने वाले मिमित्त से होने वाली मात्मा की परिणति को ग्रहण परस्पर विरोधी दो धर्मों को एक साथ ग्रहण करता है करना व्यवहार दृष्टि का विषय है। निश्चय दृष्टि, प्रास्मा पौर नय वह है जो परस्पर विरोधी दो धर्मों में से एक मैं काम, क्रोध, मान माया, लोम, प्रादि विकारों को
-समयमार, कुन्दकुन्द
१. महमिक्को खुल सुद्धो दसणणाणमइमो सदा रूती।
विपत्ति मज्म किंचि वि अण्णं परमाणु मित्तपि ॥३।। २. एगो मे सासदो पप्पा णाणदंसणलक्षणों।
सेसा बहिरभवा भावा सम्बे संजोगलक्खणा ॥२॥
-मियमसार, कुन्दकुश्व