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जैन-परम्परा में सम्त और नकी साधना पद्धति
अचल ब स्थिर हो जाता है, सपने स्वभाव से हटता नही के प्रतिरिक्त अन्य कोई प्राथयभूत स्थान नहीं है, उसी है, वही साघु मोक्ष को उपलब्ध होता है।
प्रकार ज्ञान-ध्यान से विषप-विरक्त शुद्ध चित्त के लिए ___ जैन साधु का अर्थ है- इन्द्रियविजयी प्रात्म-ज्ञानो। प्रात्मा के सिवाय किमी द्रव्य का प्राधार नहीं रहता। ऐसे पात्मज्ञानी के दो ही प्रमुख कार्य बतलाए है - ध्यान प्रात्मा के निविकल्प ध्यान से ही मोह-अथि का भेदन होता और अध्ययन । इस भरत क्षेत्र में वर्तमान काल में साध है। मोह ----गांठ के टूटने पर फिर क्या होता है? इसे ही के धर्म ध्यान होता है। यह धर्मध्यान उस मनि के होता समझाते हुए प्राचार्य कहते है - जो मोह-प्रन्थि को नष्ट है जो प्रात्मस्वभाव में स्थित है। जो ऐमा नही मानता है, कर राग-द्वेष का क्षय कर पुष-दुख मे समान होता हुमा वह अज्ञानी है, उसे धर्मध्यान के स्वरूप का ज्ञान नही है। श्रामण्य या साधुत्व में परिणमन करता है, वही अक्षय जो व्यवहार को देखता है, वह अपने प्रापको नही लम्ब सुख को प्राप्त करता है। सकता है। इसलिये योगो सभी प्रकार के व्यवहार को जिनागम मे श्रमण या सन्त दो प्रकार के बताये गए छोड कर परमात्मा का ध्यान करता है । जो योगी ध्यानो है --- शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी। जो अशुभ प्रवृत्तियों मनि व्यवहार में सोता है, वह अात्मस्वरूप-चर्या मे जगता से राग तो नही करते, किन्तु जिनके वादि रूप शुभ है। किन्तु जो व्यवहार जागता है, वह प्रारमचर्या में प्रवत्तियो मे राग विद्यमान है वे सराग चारित्र के धारक सोता रहता है। स्पष्ट है कि साधु के लोकिक व्यबहार श्रमण कहे गए है। परन्तु जिनके विसी भी प्रकार का नही है और यदि है, तो वह माधु नही है। धर्म का राग नही है, वे वीतराग श्रमण है। किन्तु यह निश्चित व्यवहार सघ मे रहना, महाव्रतादिक का पालन करने में है कि समभाव और प्रात्मध्यान की चर्या पूर्वक जो साधु भी वह उस समय तत्पर नहीं होता। अत: सब प्रवृत्तियों वीतगगता को उपलब्ध होता है, वही कर्म-क्लेशो का नाश की निवृत्ति करके प्रात्मध्यान करता है। अपने प्रात्य- कर सच्चा सुख या मोक्ष प्राप्त करता है, मन्य नहीं । इस स्वरूप में लीन होकर वह देखता जानता है कि परम- सम्बन्ध में जिनागम का सूत्र यही है कि रागी प्रास्मा कम ज्योति स्वरूप सच्चिदानन्द का जो अनुभव है, वही मैं हूं बांधता है और राग रहित प्रात्मा कर्मों से मुक्त होता है। अन्य सबसे भिन्न है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है -जो निश्चय से जीवों के बन्ध का संक्षेप यही जानना चाहिए। मोह दल का क्षप करके विषय से विरक्त हो कर मन का इसका अर्थ यही है कि चाहे गृहस्थ हो पा सन्त, सभी रागनिरोध कर स्वभाव मे समस्थित है. वह प्रात्मा का ध्यान द्वेष के कारण समार-चक्र म पावतंन करते हैं और जब करने वाला है। जो प्रात्माश्रयी प्रवृत्ति का प्राश्रय ग्रहण राग से छूट जाते है, तभी मुक्ति के कगार पर पहुंचते हैं। करता है, उसके ही परद्रव्य-प्रवृत्ति का प्रभाव होने से केवल साधु-मन्त का भेष बना लेने से या बाहर से दिखने विषयों की विरक्तता होती है। जैसे समुद्र में एकाकी वाली सन्तोचित क्रियानों के पालन मात्र से कोई सच्चा संचरणशील जहाज पर बैठे हुए पक्षी के लिए उस जहाज श्रमण-सन्त नहीं कहा जा सकता। जिनागम क्या है ? यह १. भरहे दुस्समकाले धम्मज्माणं हवेइ साहुस्त । ४. जो णिहदमोहगठी रागपदोसे खवीय सामणे । त अप्पसहावठिदे ण ह भण्णइ सो वि अण्णाणी।।
होज्ज समसुदुक्खो सो सोक्व प्रक्खयं लहदि ।। -मोक्षपाहुड, गा० ७६
वही, गा० १९५ २. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि। ५. असुहेण रायरहिमो वयाइयरायेण जोह संजत्ती। जो जग्गदि ववहारे सो सत्तो पप्पणो कज्जे ॥
सो इह भणिय सरामो मक्को दोहणं पि खलु इयरी ।। ~मोक्षपाड, गा० ३१
नयचक्र, गा० ३३१ ३. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता। ६. रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा। समवदिदो सहावे सो पप्पणं हदि मादा।। एसो बंधसमासो जीवाणं जाज णिच्छयदो॥ प्रवचनसार, गा० १६६
प्रवचनसार,गा. १७६