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________________ ७२३३ ४ समझाते हुए जब यह कहा जाता है कि जो विशेष नहीं समझते हैं, उनको इतना ही समझना चाहिए कि जो वीतराग का भागम है उसमें रागादिक विषय कषाय का प्रभाव और सम्पूर्ण जीवों की दया ये दो प्रधान हैं। फिर, हिंसा का वास्तविक स्वरूप ही यह बताया गया है कि जहाँ-जहाँ राग-द्वेष भाव है, वहाँ वहाँ हिसा है प्रोर जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है। श्रमण-सभ्य तो धर्म की मूर्ति कहे गए हैं। ये पूज्य इसीलिए है कि उनमें धर्म है। धर्म का प्राविर्भाव शुद्धोपयोग की स्थिति में ही होता है जो वीतराग चारित्र से युक्त साक्षात् केवलज्ञान को प्रकट करने वाली होती है । यथार्थ मे निश्चय ही साध्य स्वरूप है । यही कहा गया है कि बाह्य श्रौर प्रन्तः परमतत्व को जान कर ज्ञान का ज्ञान में ही स्थिर होना निश्चय ज्ञान है'। यथार्थ में जिस कारण से प द्रव्य में राग है, वह ससार का ही कारण है। उस कारण से ही मुनि नित्य प्रात्मा मे भावना करते है, प्रात्मस्वभाव में लीन रहने की भावना भाते हैं। क्योकि परद्रव्य से राग करने पर राग का संस्कार दृढ़ होता है और वह वासना की भांति जम्म जन्मान्तरों तक संयुक्त रहता है। वीतराग की भावना उस सरकार को शिथिल करती है, उसकी मासक्ति से वित्त परावृत्त होता है घोर पासक्ति से हटने पर ही जैन साधु की साधना प्रशस्त होती है। प्राचार्य समन्तभद्र न प्रत्यन्त सरल शब्दो मे जैन साधु के चार विशेषणो का निर्देश किया है जो विषयो की वांछा से रहित, छह काय के जीवों के घात के प्रारम्भ से रहित, प्रतरंग धौर बहिरग परिग्रह से रहित छह काय के जीवों के बात के प्रारम्भ से रहित मन्तरग मोर बहिरन परिषद से रहित तथा ज्ञानदान तप मे लीन रहते है, वे ही तपस्वी प्रशसनीय है। इस प्रकार अध्यात्म और आगम-दोनों की परिपाटी मे जैन सम्त को ध्यान व अध्ययनशील बतलाया है । ध्यान से ही १. बहितरंग परमतच्चं णक्वा णाणं खु ज ठिय णाणे । तं इच्छिणाणं पुरुष से मुणह बवहारं ॥ नयचक्र, गा० ३२७ धकांस २. जेण रागो परे दब्बे संसारस्य हि कारणं । तेजवि जोइयो णिच्च कुज्जा धप्पे समावणं ॥ मोक्षपाहट, गा० ७१ -- मन वचन घोर काय इन दोनों योगों का विशेष होकर मोह का विनाश हो जाता हैं। जैन-परम्परा में संसार का मूल कारण मोह कहा गया है । मोह के दो भेद हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोह | दर्शन मोह के कारण हो इस जीव की मान्यता विपरीत हो रही है । सम्यक् मान्यता का नाम ही सम्यक्त्व है । मिध्यात्व मशान और प्रसंयम के कारण हो यह जीव संसार में धनादि काल से भ्रमण कर रहा है। प्रतएव इनसे छूट जाने का नाम ही मुक्ति है। मुक्ति किसी स्थान या व्यक्ति का नाम नहीं है। यह वह स्थिति है जिसमे प्रतिबन्धक कारणो के प्रभाव से व्यक्त हुई परमात्मा की शक्ति अपने सहज स्वाभाव के रूप में प्रकामित होती है। दूसरे शब्दों में यह प्रात्मस्वभावा रूप ही है। इस अवस्था मे न तो मात्मा का प्रभाव होता है और न उसके किसी गुण का नाश होता है और न ससारी जीव की भाँति इन्द्रियाधीन प्रवृत्ति होती है किन्तु समस्त लौकिक सुखों से परे स्वाधीन तथा घनन्त चतुष्टयुक्त हो प्रक्षय निरावस, सतत अवस्थित सच्चिदानन्द परब्रह्म की स्थिति बनी रहती है। ४ आध्यात्मिक उत्थानों के विभिन्न चरण वर्तमान मे यह परम्परा दिगम्बर मोर श्वेताम्बर रूप से दो मुख्य सम्प्रदायों में प्रचलित है। दोनो ही सम्प्रदायों के साधु-सन्त मूलगुणो तथा छह प्रावश्यको का नियम से पालन करते है। दिगम्बर- परपरा मे मूल गुण प्रट्ठाईस माने गए हैं, किन्तु श्वेताम्बर-परंपरा मे मूल गुणों की संख्या यह है दोनो ही परंपराएं साधना के प्रमुख चार चार अंगो ( सम्बूदर्शन ज्ञान चारित्र मोर तप ) को समान रूप से महत्व देती है। इसी प्रकार दर्शन के पाठ पंग ज्ञान के पांच अंग, चारित्र के पाँच अंग और तप की साधना के बारह अंग दोनों में समान हैं । तप के प्रन्तर्गत २. विषयाशावशाततो निरारम्भो परिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरतस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १, १० ४. जं प्रप्सहावो मूलोसरपापडिसंघिय मुबइ । त मुक्लं प्रविरुद्धं दुविहं ससु दम्यभावगम ॥ नवचक, पा० १५०
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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