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जन-परम्परा में सम्त और उनकी सापना-पति
पाह्य और अन्तरंग-दोनों प्रकार के तपों को दोनों केवल ज्ञान की स्थिति को उपलब्ध करा देती है - यही स्वीकार करते हैं । बहिरंग तप के अन्तर्गत काय-क्लेश को संक्षेप मे जैन अवस्थामों के पाधार पर चौदह गुणस्थानों भी दोनों महत्त्वपूर्ण मानती हैं । दश प्रकार की समाचारी के रूप में विशद एवं सूक्ष्म विवेचित किया है जो जैन भी दोनों में लगभग समान है। समाचार या समाचारी गणित के प्राधार पर ही भर्ती-भांति समझा जा सकता का अर्थ है-समताभाव । किन्तु दोनों को चर्यायो में है। इन सबका साराश यही है कि चित्त के पूर्ण निरोध प्रन्तर है। परन्तु इतना स्पष्ट है कि श्रमण-सन्तों के लिए होते ही साधक एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है जहाँ प्रत्येक चर्या, समाचारी, प्रावश्यक कर्म तथा साधना के साधन साध्य और साधक में कोई भेद नही रह जाता। मूल मे समता भाव बनाये रखना अनिवार्य है। इसी इस स्थिति में ध्यान की सिद्धि के बल पर योगी अष्टकर्म प्रकार मोह प्रादि कर्म के निवारण के लिए ध्यान-तप रूप माया का उच्छेद कर अद्वितीय परब्रह्म को उपलब्ध अनिवार्य माना गया है।
हो जाता है जो स्वानुभूति रूप परमानन्द स्वरूप है। एक यह निश्चय है कि भारत को सभी धार्मिक परम्परामो बार परम पद को प्राप्त करने के पश्चात् फिर यह कभी ने साध-मतों के लिए परमतत्व के साक्षात्कार हेतु माया से लिप्त नहीं होता और न इसे कभी अवतार ही प्राध्यात्मिक उत्थान को विभिन्न भूमिकामो का प्रतिपादन लेना पड़ता है। अपनी शुद्धात्मपरिणति को उपलब्ध हुमा किया है। बौद्ध दर्शन में छह भूमियों का वर्णन किया गया
श्रमणयोगी स्वानुभति रूप परमानन्द दशा में अनन्त काल है। उनके नाम है-अन्धक्थग्जन, कल्याणक्यग्डन, तक निमज्जित रहता है। श्रमण-सन्तों की साधना का श्रोतापन्न, सकृदागमी, पौषपातिक या अनागामी और उद्देश्य शुद्धात्म तत्त्व रूप परमानन्द की स्थिति को उपलब्ध महत । वैदिक परम्परा में महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में होना कहा जाता है। उनके लिए परमब्रह्म ही एक उपादेय चित्त की पांच भमिकापों का निरूपण किया है। वे इस होता है, शुद्धात्म तत्त्वरूप परब्रह्म के सिवाय सब हेय है। प्रकार हैं-क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र भोर निरुद्ध । इसलिये उपादेयता की अपेक्षा परमब्रह्म मद्वितीय है। शक्ति वही एकाग्र के वितर्कानुगत, विचारानुगत, अानन्दानुगत रूप से शुद्धात्मस्वरूप जीव और अनन्त शुद्धात्मामों के और प्रस्मितानुगत चार भेदो का वर्णन है । निरुद्ध के समूहरूप परब्रह्म में प्रश-अंगी मम्बन्ध है परब्रह्म में प्रशपश्चात कैवल्य या मोक्ष की उपलब्धि हो जाता है। अशी मम्बन्ध है। परब्रह्म को उपलब्ध होते ही 'योमवाशिष्ठ" मे चित्त को चौदह भूमिकाएं बताई गई जीवन्मुक्त हो जाते हैं, उनमे पोर परब्रह्म में कोई अन्तर हैं। प्राजीविक सम्प्रदाय मे पाठ पेडियो के रूप में उनका नही रहता है। यही इस साधना का चरम लक्ष्य है। उल्लेख किया गया है, जिनमे से तीन प्रविकास की तथा सन्तों की अविछिन्न परम्परा पांच विकास की अवस्था को द्योतक हैं। उनके नाम है- सक्षेप मे, जैन श्रमण-सन्तों की परम्परा भात्मवादी मन्दा, खिड्डा, पदवोमंसा, उजगत, सेख, समण, जिन पोर।
तप-त्याग की अनाद्यन्त प्रवहमान वह पारा है जो प्रतीत, पन्न । जैन-परम्परा में मुख्य रूप से ज्ञान धारा का महत्त्व अनागत और वर्तमान का भी अतिक्रान्तकर सतत कालिक है क्योंकि सत्य के साक्षात्कार हेतु उसको सर्वतोमुखेन । विद्यमान है। भारतीय सन्तों की साधना-पद्धति मे त्याग उपयोगिता है। जिनागम परम्परा में ज्ञान को केन्द मे का उच्चतम प्रादर्श, अहिंसा का सूक्ष्मतम पालन, व्यक्तित्व स्थान दिया है। प्रत. एक पोर ज्ञान सत्य को मान्यता से का पूर्णतम विकास तथा संयम एवं तप की पराकाष्ठा पाई संयुक्त है मोर दूसरी भोर सत्य को मूल प्रवृत्ति से सम्बद्ध जाती है। साधना की शुद्धता तथा कठोरता के कारण है। इसे ही मागम मे सम्यकुदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय छठी शताब्दी के पश्चात भले ही इसके अनुयायिभो को कहा गया है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र की साधना मे संख्या कम हो गई हो, किन्तु माज भी इसकी गोरवविवेक को जागृति पावश्यक है । प्रात्मानुभूति से लेकर गरिमा किसी भी प्रकार क्षीण नहीं हुई है। केवल इस देश स्वसंवेद्य निर्विकल्प शान की सतत धारा किस प्रकार में ही नही, देशान्तरों में भी जैन सन्तोक विहार करने के