SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६, बर्ष ३३, कि० ४, मनोरंजक तथ्य यह है कि कुन्दकुन्द के अनेक ग्रन्थों में से करनी पड़ती है। इससे संवर और निर्जरा (समयसार केवन समयमार में ही यह रहस्यवादी निरुपण विस्तार मे १६६-६७, १९.) होते हैं । इस यथार्थवादी दृष्टिकोण के किया गया है। विवरण में ही हमें जैन-धर्म की पारिभाषिक शब्दावलीयथार्थवादी दृष्टिकोण दार्शनिक सिद्धान्तो के निदर्शन उपयोग, परभाव, स्वभाव आदि मिलती है । यह कहना के लिये है। इसमें रत्नत्रय और उससे सबधित दार्शनिक तर्कसंगत होगा कि इस दृष्टिकोण का उद्देश्य प्रात्मानभूति धारणामों पर बल दिया गया है। इस दष्टिकोण को जनों नही, प्रात्म-सुधार है। के सभी संप्रदाय मानते है । इस मत में जीव और अजीव- इम विचारधारा के निश्चय नय में जीव स्वाभाविक दोनों ही वास्तविक है। इनमें परम्पर संपर्क होता है: परिवर्तनो का कर्ता और भोक्ता है (दर्शन, पाहह, ३०. इनकी प्रकृति में परिणमन होता है जैसा कि प्रवचनसार शीलपाड़, २७, समयसार, २३)। जीव और अजीव की गाथा १, ४६ में तथा समयसार की गाथा १२२ में दोनों ही स्वक-भाव मे शुद्ध और प्रसंदूषित रहते है। जीव बताया गया है । इसके अनुसार जीव का कतृत्व-भोक्तत्व शद होता है, स्वभाव में परिणत होता है और अनेक तथा भौतिक जगत सभा वास्तविक है। (रत्न वय इत्यादि परिवर्तनों का कर्ता होता है। (समयसार, ८२-३।। के विषय में नियमसार, प्रष्ट पाहूड, समयसार, प्रवचनसार यही तथ्य प्रवचनमार (११.६२) तथा पंचास्तिकाय प्रादि देखिये)। (६७) में भी कहा गया है। यथाथवादी विचारधारा प्रात्मा का अनेकता में प्रात्मा का शुद्ध स्वभाव रत्नत्रय है। उपयोग इससे विश्वास करती है। इसके अनुसार, प्रत्येक प्रात्मा का समीपत: संबंधित है अथवा इसे रत्नत्रय हेतु प्रयुक्त किया विस्तार शरीर के परिमाण तक मीमित होता है (पचास्ति- जाता है (प्रवचनसार, ११६३, नियममार, १०, समयकाय २७.३४ तथा भावपाहड, १४८)। जीव-प्रजाव के सार १६.६४.६५)। समयसार (३५६) के अनसार, संपर्क में आने से कर्म और कषायों के प्रास्रव के कारण प्रात्म निश्चय नय सेदृष्टा भी होता है । इसी प्रकार षित हो जाता है (समयसार, ४५, १६४.६५, १०६ पदगल भी प्रसदृषित अवस्था में स्वभाव स्थित होता है। प्रादि) । इससे जीव स्वय अपने को सासारिक क्रियायो का यह भी स्वय के परिवर्तनों का कर्ता है (समयसार, ७६, कर्ता और भोक्ता समझने लगता है । इस प्रकार जीव सुख ११२-१३ और पंचास्तिकाय ६८, ७) । और दव के समार में बध जाता है। जीव अपनी प्रकृति यथार्थवाद में व्यवहार नय का संबन्ध पर भान या के विषय में अज्ञानी बना रहता है (ममयमार, ६६)। द्वितीयक दशानों में रहता है। जीव और अजीव जब स्वय जीवन के सुख-दुख से मुक्ति के लिये तपस्या और साधना के या एक-दूसरे के सम्पर्क में रहते है, तब परभाव (पृ० ८० का शेषाश) रूपोपन के कारण वह परिवर्तन परिलक्षित होता है और नाश नही होता। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वा में बह भी पदगल-द्रव्य के स्वभाव के कारण उनकी पर्याय स्थित रहते हुए अपनी पर्यायो मे परिणमन करता है। बदलती रहती है। काल-दम्य उस परिणमन एवं परिवर्तन दम्य के उस यथार्थ स्वरूप को समझना ही सम्यक ज्ञान है मे सहायक होता है। परन्तु पुद्गल-द्रव्य का कभी भी पौर वही प्रात्म-विकास का मही मार्ग है। 000 (१० ६३ का शेषांश) अनेकों स्थान हैं जहां पर शोध खोज एव खुदाई की चाहिए । जैन पुरातत्वविदो को शिवपुरी जिला शोष खोज प्रावश्यकता है। मगरौनी में तो मुझे अपभ्रंश के महाकवि के लिए निश्चय ही वरदान स्वरूप सिद्ध होगा। रद्दध की कुछ रचनामों के उपलरध होने की भी प्राशा है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु अनामयाः । जब मैं नरवर से मगरौनी जाना चाहता था तो लोगो ने सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् भवतु दुःखमाण ॥ बताया था कि वहां कुछ हस्तलिखित ग्रंथ है पर वहां के श्रुत कुटीर चौधरी किसी को दिखाते नही हैं । समाज को इस दिशा ६८, कुन्ती मार्ग, विश्वास नगर मे सतर्क पोर सजग होकर इस शोध कार्य को कराना दिल्ली-११००३२ 000
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy