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________________ कन्दकुन्द की कृतियों का संरचनात्मक अध्ययन २७ वह बिना किसी यही नहीं, इस समभाव का ही दाने समयसाबाद में ब्राह्मण रहार निरूपित (विभाव) में होते हैं । इस विचारधारा में पुद्गल का यह दर्शनों में रहस्यवादी विचारधारा का पाविर्भाव प्रारम्भ से स्वभाव ही है कि वह बिना किसी की सहायता के भी ही दक्षिण भारत में हुपा था। तृतीय शताब्दी के नागार्जुन दूसरे पदार्थों के संपर्क में पाये । यही नहीं, इस संपर्क में ने बौद्ध रहस्यवाद का प्रसार किया। यह संभवतः मान्ध्र संदूषण के बावजूद भी जीव और मजीव अपना स्वभाव का ही दार्शनिक था। इसे ही पान्ध्र केही कुन्दकुन्द नहीं छोड़ते। यथार्थवादी व्यवहार नय में रत्नत्रय में भी (३-५ सदी) ने समयसार के रहस्यवाद में विकसित यह तथ्य समाविष्ट रहता है कि जीव ज्ञाता है पोर दृष्टा किया। यही रहस्यवाद बाद में ब्राह्मण रहस्यवाद के रूप है और यह अन्य पदार्थों से किया करता है। यही स्थिति पाठवीं शताब्दी में शंकर ने अपनाया और निरूपित गर्यायों पर भी लागू होती है (समयसार, ३६१-६५)। किया । शंकर भी संभवतः मालाबार या मान्ध्र के समीप निश्चय नय के अनुसार, पुद्गल स्वभावतः परमाणरूप वर्ती दक्षिण भारत क्षत्र में जन्मे थे। होता है और व्यवहार नय के अनुसार, इसकाविभाव स्कन्ध में यहां यह भी बता देना चाहता हूं कि कुछ रूप होता है। यह परभाव स्वभाव में विकृति या संदूषण दिगम्बराचार्यों ने उत्तरवर्ती काल में भी कुन्दकुन्द की इस का परिणाम है (नियमसार, २६ पौर पंचास्तिकाय, ८२)। रहस्यवादी विचारधारा को न्यूनाधिक परिवर्तित रूप में उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि रहस्यवादी और निरूपित किया है। इसके विपर्यास में श्वेतांबर विद्वान् यथार्थवादी दृष्टिकोगों में मौलिक अन्तर है । जिन ग्रन्थों कुन्दकुन्द की इस विचारधारा को शास्त्रविरुद्ध मानते हैं। पर हम चर्चा कर रहे है, उनमें से केवल समयसार में ही नयोपदेश (८०-८२)के कर्ता यशोविजय समान उत्तरवर्ती रहस्यवादी धारा का विशद निरूपण है। इसे हम समय- श्वेताबराचार्यों ने इस विचारधारा की मालोचना भी की सार का रहस्यवाद कह सकते हैं । फिर भी, यह ध्यान में है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में वे इस विचाररखना चाहिये कि समयसार की ४३६ गायानों में से धारा से प्रभावित भी हो गये थे। लेकिन यह एक तथ्य है ३०३ में यथार्थवादी विचाराधारा निरुपित हुई है। हमारी कि श्वेताबरों में इस रहस्यवादी विचारधारा को विशेष संरचनात्मक विश्लेषण से हम यह कह सकते हैं कि समय स्थान नहीं मिला है। इस दृष्टि से हम मोपपातिक की सार का वर्तमान रूप समांग नहीं है। यह संभव है कि गाथा १६ (सुत्तंगम् ४, पृष्ठ ३६) और मावश्यक निर्यति समयसार की रहस्यवादी विचारधारा की १३६ गाथायें (हरिभद्र-संस्करण, पृष्ठ ४४६) की गाथा ९५३ को एक व्यक्ति ने रची हों जो कुन्दकुन्द थे । एक-दूसरे की समयसार की गाथा ८ तथा चतुरशतक की गाथा ८.१९ से विरोधी दो विचारधानों को समाहित करने वाले अन्य का तुलना कर सकते हैं। समयसार की गाथा ३२७ तथा एक ही कर्ता नही माना जा सकता। पावश्यक नियुक्ति के मत परस्पर तुलनीय हैं। ये प्रन्थ ऐसा प्रतीत होता है कि मूल समयसार निम्न प्रकार श्वेताबराचार्यों के हैं। इसके विपर्यास में, यथार्थवादी से तीन अध्यायों में विभाजित हो : विचारधारा दोनों ही समुदायों में एक समान रूप से प्रथम अध्याय गाथा १-१४४ अभिस्वीकृत की गई है। द्वितीय अध्याय गाथा १५१-२७२ ततीय अध्याय गाथा २७६-४१५ -जैन विद्या विभाग, पंजाबी यूनिवर्सिटी यहां यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि भारतीय पटियाला (पंजाब) संदर्भ समयसार सं. प. कैलाशचद्र शास्त्री, कन्दकन्द प्राकृत संग्रह में जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९९. २. अनुप्रेक्षा पूर्वोक्त ३. पाठ भक्तियां पूर्वोक्त ४. नियमसार एस. बी.जे.सीरीज , जे. एल: जौनीट्रस्ट, १९३१ ५. अष्टपाहु हिम्मतनगर प्रकाशन, संवत् २०२५ ६. रयणसार हिम्मतनगर, १९६७ ७. प्रवचनसार सं. ए. एन. उपाध्ये, रामचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, १९६४ ८. पंचास्तिकाय सार, सं. ए. चक्रवर्ती नायनार, एस. वी. मे. जे, १९२० एस. वी: जे.-सेकेण्ड बुक्स माफ दी नाज, पारा लखनऊ ZDMG-जीड रिक्रफ्ट डेट हयूशेन मोगेनलेन्डिशेन गैशामशन ४२ बीजबेडेन (४० जर्मनी) DAD
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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