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________________ कुन्दकुन्द की कृतियों का संरचनात्मक अध्ययन नय-युगल को दो रूपों में वर्णित किया गया है-रहस्यवादी नय व्यवहार नय को अस्वीकार करता है। समयसार की और यथार्थवादी । ये दोनों रूप एक-दूसरे से भिन्न है और गाथा ११ और २७२ के अनुसार व्यवहार नय की किसी भी परस्पर विरोधी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते है। इस तथ्य पर मान्यता को निश्चय नय अस्वीकार कर देता है । इस मत अभी तक किसी भी विद्वान गवेषक ने प्रकाश नही डाला की तुलना समयसार, गाथा, ५६, अनुप्रेक्षा, ६०, ६५ तथा नागार्जुन की 'मूलमाध्यमिक कारिका' (१७, २४) से की रहस्यवादी रूप का उद्देश्य स्वानभूति है। यह जीव जा सकती है : और प्रात्मा को मानता है, परमार्थ मानता है। ध्ययहारा विरुध्यन्ते सर्व एष, न संशय.......... तथा तत्थेको विच्छिदो जीवो (समयसार, ४८) सर्व संध्यवहारांश्च लौकिकान् प्रतिवाषते ॥ २४, २६ ॥ अहमिक्को (समयसार, १६६) रहस्यवादी दष्टिकोण मे व्यवहार नय संसार से इमके विपर्यास मे, संसार किमी शुद्ध क्रिस्टल में वस्तु मबंधित है। वह इसे वास्तविक मानता है। वह जीव और के प्रतिबिम्ब के समान आभासी तत्व है (समयसार, २७८ अजीव के सम्पर्क एव उनके सांसारिक अनुभवो को भी ७६)। रहस्यवादी विचारधारा केवल प्रात्मा की प्रकृति वास्तविक मानता है (समयसार, १०७)। साथ ही, समयपर विचार करती है और उसकी अजीब (संसार) मे कोई सार की गाथा ८ मे कहा गया है कि जिस प्रकार प्रनार्य विशेष रुचि नहीं है । जीव और अजीव का सम्पर्क केवल को उसकी भाषा जाने बिना नही समझा जा सकता, उसी कल्पना (उपचार, समयसार, १०५) है । समयमार (२६६) प्रकार परमार्थ वास्तविक तत्त्व को व्यवहार के बिना नही में बताया गया है कि यह सम्पर्क वास्तविक नही है, लेकिन समझा जा सकता इस गाथा की नागार्जुन के शिष्य यह मंमार को वास्तविकता के मायाजाल को प्रकट करता मार्य देव के चतुरशतक की गाथा ८.१६ से तुलना की जा है। यहाँ तक की गाथा ७ तथा १५२.५३ के प्रमुमार व्रत. उवामादि चारित्र और रत्नत्रय भी मासारिक वास्त. सकती है (भाषान्तर कार : विधुशेखर भट्टाचार्य, कलकत्ता, विकता के क्षेत्र में समाहित होते है । यद्यपि शास्त्रो मे १९३१): नाम्यया भाषया शक्यो प्राहयितुं यथा । इनका विधान किया गया है फिर भी ये अज्ञानी के मिथ्या न लौकिका ऋते लोकः शक्यो प्राहयितुं तथा ॥ गण है। समयमार की गाथा ३६० के अनुसार शास्त्र भी चतुरशतक की यह गाथा अप्रामाणिक प्रतीत होती है। परम तत्व के विषय में अज्ञान है । इस गाथा की तुलना व्यवहाग्नय निश्चय नय की इस प्रकार सहायता करता गाथा २०१ तथा प्रवचनमार की गाथा ३, ३६ की जा है जिससे अन्त में वह नष्ट हो जावे । यह उत्तरवर्ती वेदात सकती है। इस प्रकार, रहस्यवादी के अनुसार ससार तब दर्शन के कन्टक न्याय के समान व्यवहार का व्याहार तक वास्तविक है जब तक प्रात्मा इसकी प्रकृति के विषय करता है । यह मत रत्नावली (नागार्जुन) के विशेषणानि में अज्ञान में हैं। इसे वह ज्ञान पीर स्वानुभूति से ही विसंहन्यात तथा 'मूलमाध्यमिक कारिका' के २४.८ तथा जानता है। १० मे भी तुलनीय है : १. उपरोक्त विवरण मे पाहड़ो को निम्न प्रकार दे सत्ये समुपाश्रित्य, बुद्धानां धर्मदेशना । क्रमाकित किया गया है : लोकसंवृति-सत्यं च, सत्यं च परमार्थतः॥ १. दर्शनपाहुड ४ बोधपाहुड ७. लिंगपाहु व्यवहार प्रनाश्रित्य, परमार्थो न विद्यते । २ चरित्रपाहुड ५. भावपाहुड़ ८. शीलपाहुड़ परमार्थमनागम्य, निर्वाणं नाधिगम्यते ॥ ३. मूत्रपाहुह ६. मोक्षपाहुड़ रहस्यवादी धाग के निश्चय और व्यवहार नय रहस्यवादी दष्टिकोण में निश्चय नय केवल प्रात्मा माध्यमिक दर्शन के परमार्थ और व्यवहार (सवति या से ही सबंधित है । यह अनन्यक, शुद्ध, नियत, मुक्त, अवर लोक संवृति) के समानान्तर हैं । यही नहीं, इनकी तुलना पौर अस्पष्ट होता है। (समयसार, १४)। यह निश्चय शंकर वेदान्त दर्शन से भी की जा सकती है। लेकिन
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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