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कुन्दकुन्द की कृतियों का संरचनात्मक अध्ययन
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जैन धर्म के इतिहास मे बा० कुन्दकुन्द का महत्वपूर्ण प्रा० स्थान है। दिगम्बरों के प्राचीन जैन सिद्धान्त के प्रस्तोता के रूप मे उनकी अच्छी स्वाति है। वेताम्बर सप्रदाय मे भी इनकी मान्यता है । ये दक्षिण भारत के संभवत: अन्य क्षेत्र में लगभग तीसरी-चौथी सदी में हुए थे। इनके ८४ ग्रंथ बताये जाते हैं, लेकिन वर्तमान में इसके केवल १५ ग्रंथ उपलब्ध है जिनगे लगभग २००० गाथाये है इन ग्रन्थो की वियवस्तु विविध एव व्यापक है । इनमें से लगभग पाठ ग्रन्थ 'अष्टपाहुड के रूप में प्रकाशित है । इनमें से बी को हु' कहते है। इनका मानोचनात्मक अध्ययन किंग (कुन्दकुन्द एट ए उनेष्ट ZDMG, १०७, १६५७) उनके (कैस्टर जेकोबी, १९१०) तथा लायमान (उपरशिष्ट) ने किया है।
इन पन्द्रह ग्रन्थों में हमें निश्चय नय ( शुद्ध और ( शुद्ध और परमार्थ नय) तथा व्यवहार नय शब्द मिलते है। समयसार, धनुप्रेक्षा और नियमसार में इन पदो का उपयोग पर्याप्त मात्रा मे है। ये नय-युगल सामान्य सात नयो से भिन्न हैं। यह नय युगल कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दृष्टि से इनका अध्ययन पूर्व मे नही किया गया है। सर्वप्रथम मैने हो अपने जर्मनी के प्रयास में इस रूप में इनका अध्ययन प्रकाशित किया था । (ZDMG, Suppt. ॥। १९७२ ) अन्य विद्वानों की सुविधा के लिए मैं इस अध्ययन को पुनः प्रकाशित कर रहा हू लेकिन इसमें घनेक नई सूचनायें कुछ सक्षेप मे तथा कुछ विस्तार से दी गई है।
डा० बी० भट्ट पटियाला (पंजाब)
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अध्ययन का संक्षेपण भी करूंगा।
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अष्टपाहुड में विभिन्न गायों में एक-दूसरे की अनुवृत्ति है। इसकी लगभग ५०० गाथाओंों में केवल सान श्लोक हैं और कुछ गीतिया है। इनमें उत्तमग्ग निया, ४, तिल प्रोमे ४ पावण (प्रत्रज्या), ३ के समान अनेक भाषायी अनियमितायें, रयणन्त ( (रत्नत्रय ) ४, के समान संक्षेपण एवं अन्यपूति के लिये दु (तु) य और म (प्रत्यय) प्रादि के कालगरिमा के प्रतिकूल उपयोग सहय उपपन्ना १, कम्मलय कारण-निमित्त १ बोरा पौर चतदेहा यादि के समान पुनरुक्तिया, सच्चिता और धज्जीया आत्तावन ( आतावन ), ५, श्रायत्त न ( श्रायतन ) ८, ग्गनं २, निम्गोय, ५, ग्गमनं १, ३ में जिनमग के बदले दंसणमा के समान विचित्र द्वि-गतिया, भये ( भ्रमयेले ) य (य) सोपान, कान्तार, महादेव चादि के समान प्राकृत में सस्कृतीकरण के प्रयोग पाये जाते है ।
इन पाहुडों की शैली भी अत्यन्त कमजोर है । इनके के अनुसार, इसकी प्राकृत अपभ्रंश से प्रभावित है। उदाहणार्थ इनमें श्रमण के स्थान पर सवन (३, ५, ६,८), तथा तम-जम ( ८ ) तव जव (८), जहा तहा ( ८ ) आदि शब्द पाये जाते है । उपाध्ये का विचार है कि ये पाहू जनसाधारण में पर्याप्त लोक प्रिय थे । सभवतः इन अपअंशभाषी लोगों के कारण ही इनमें मिश्रण हो गया है। लेकिन इस सुझाव के समय उन्हें यह ध्यान नही रहा कि पों में इस प्रकार के परिवर्तन सभव नहीं होते । इन तथा अन्य अनेक कारणों से (जिनका विवरण देना आवश्यक नहीं है, अन्यथा हम शूबिंग के तर्कों को नही समझ पायेंगे) यह कहा जा सकता है कि ऐसे दुर्बल पाहुड़ कुन्दकुन्द के समान विद्वान् साधु के द्वारा रचित नही हो सकते ।
शूविंग ने बन्दभेद भादि के आधार पर भाठ पाहुड़ों के मिश्रित रूप को निदर्शित किया था । कुदकुन्द के पन्द्रह ग्रन्थों में वर्णित नय-सम्बन्मी विषयवस्तु की परीक्षा तथा मूल्यांकन के प्राधार पर मैं भी विंग के मत का समर्थन करूंगा । ऐसा करने से पहले में शूबिंग के पाहुड. *कै० च० शास्त्री प्रभि समय में पठित मूल अंग्रेजी शोधपत्र को मन्दलाल जैन द्वारा धनदित कर प्रस्तुत किया गया है ।
कुन्दकुन्द के द्वारा रचित दो हजार गाथाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि इनमें निश्चय व्यवहार