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________________ जैन तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में ही क्यों ? 0 श्री गणेशप्रसाद जैन यह प्राज का नहीं, एक प्राचीन प्रश्न है कि जैन. सिद्धार्थ की पत्नी क्षत्राणी त्रिश ना देवी के गर्भ में परिवर्तित तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय-कुलों में ही क्यों होता है ? जब कराने का निर्णय किया। इस कल्पना के समर्थन में श्वेताम्बर मागम ग्रन्थों मे तीर्थकर का जन्म क्षत्रिय-कूल के अतिरिक्त अन्यत्र भगवान महावीर के गर्भ परिवर्तन को कथा प्रस्तुत की और कही तो हो नही सकता, इसी नियम की पूर्ति के लिए जाती है, तब यह भौर भी विस्मयपूर्ण-जिज्ञासा तर्क रूप इन्द्र ने अपने सेनापति नंगमेष देय को महावीर के भ्रूण ग्रहण कर लेती है। परन्तु दिगम्बर परम्परा इस मान्यता को परिवर्तित करने का भार सौंपा। नंगमेष ने क्षत्रियको पूर्णरूपेण अम्वीकार करती है, इससे यह और भी कुण्ड मे त्रिशला देवी की कन्या के भ्रूण को ब्राह्मणो देवा. विचारणीय विषय बन गया है । नन्दा के गर्भ में पोर वेवानन्दा के गर्भ में स्थित भावी कहा जाता है कि भगवान महावीर के गर्भ-परिवर्तन तीर्थंकर महावीर के भ्रूण को त्रिशला रानी के गर्भ में को कथा श्रीमद्भागवल के दशम् म्वन्ध (१०२ श्लोक परिवर्तित कर दिया। गर्भ-परिवर्तन-काल मे दोनो मातामो १.१३, तथा प्र० २ श्लोक ४६ ५०) के श्रीकृष्ण की कथा को नंगमेष ने मोह-निदा मे सुला दिया था। इस कारण से पूर्ण प्रभावित है। भक्तिकाल में अपने प्राराध्यो की दोनो में से किसी को भी प्राभास तक नही हमा। चमत्कार पूर्ण कथाम्रो का प्रचार कर उन पर जन-श्रद्धा श्वेताम्बर-माम्नाय के प्रमुख ग्रन्थ फल्पसूत्र की प्रोत्साहित करने का युग था। इसके लिए विविध ढंग सुबोधिनी-टीका में उल्लिखित है कि 'महावीर का जीव' अपनाए गये। जब प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभनाथ का पौत्र और चक्रवर्ती सक्षेप मे कथासार इस प्रकार से है-जम्बूद्वीप के भरत का पुत्र मारीच था, तब उसने कुल का गर्व करके भरतक्षेत्र में वैशाली गणतन्त्र के उपनगर ब्राह्मण-कुण्ड नोच गोत्र का बन्ध कर लिया था, प्रतः उसके प्रतिफल के वृषभदत नाम के ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा के गर्भ मे स्वरूप उसे ब्राह्मणी के गर्भ मे ८२ दिन भ्रूण रूप में नन्दन मनि का जीव (महावीर का जीव) दसवें देवलोक निवास करना पड़ा। से च्युत होकर पाया । इमी रात्रि को पिछले प्रहर में स्वामी कर्मानन्द ने लिखा है कि "इतिहास के पर्यावब्राह्मणी देवानन्दा ने भावी तीर्थकर की माता के सूचक लोचन से ज्ञात होता है कि पूर्व काल में प्रास्मविया केवल चौदह (१४) स्वप्न देखे। यह गर्भ ८३ (तेरासी) दिनों मात्र क्षत्रियों के पास ही थी। ब्राह्मण जन इससे नितान्त तक ब्राह्मणी देवानन्या के गर्म में वृद्धि पाता र अनभिज्ञ रहे। ब्राह्मणों ने मंत्रियों का शिष्यत्व स्वीकार बब इन्द्र का सिंहासन कम्पित हपा, तब उसने कर इस विद्या को प्राप्त किया है। बहदारण्यक उपनिषद विचारा कि मेरे सिंहासन के कम्पित होने का कारण क्या ११-१३) में वर्णित है कि "महाराजा जनक । प्रताप होना चाहिए? उसे ज्ञात हा कि भावी तीर्थकर महावीर इस विद्या के कारण इतना फैला कि काशीराज प्रजातशत्रु का जीव जिसे क्षत्रिय कुल मे ही जन्म लेना चाहिए था, ने निराश होकर कहा था कि सचमुच ही सब लोग यह वह वंशाली के सनगर ब्राह्मणकुण्ड के ब्राह्मण वृषभदत्त कह कर भाग जाते है कि हमारा रक्षक महाराजा जनक की पत्नी देवावमा के गर्भ म स्थित हा पोषण पा रहा है। ही है। काशीराज प्रजातपात्र स्वयं भी प्रध्यात्म विद्या के ब उसने महावीर के उस भ्रूण को क्षत्रियकुण्ड के शासक महान प्राचार्य थे। वह प्रात्मतत्त्वेता थे।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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