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________________ १२, बर्ष ३३, किरण ममेकाम्स जाय तो प्रास्म कस्याण का मार्ग यही है कि स्वयं शास्त्र को उद्बोधन माज भी प्रत्येक पाठक क पढ़ो और उस के अनुसार चलो। इसमें तेरापंथी की भी को प्रेरणा देता हमाराग्य की मोर अग्रसर करता है। यह परिभाषा दी है - हे भगवान हो थाका वचना के पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वे इस 'श्रावकाचार' को अनुसार चला तात तेरापंथी हों, तो सिवाय मोर पूरा न पढ़ सके तो इसके समाधिमरण अंश को अवश्य कुदेवादिक को हम नाही सेवे है।। पढ़ें। इसके कुछ भावपूर्ण उद्धरण यहाँ देना मावश्यक भट्टारको का यह ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक वर्णन समझता हूं ताकि पाठकों को लेखक के ज्ञान एव वैराग्य हमें सावधान करने के लिए पर्याप्त है। परिग्रहधारी साधु तथा पारमानुभव का सही बोध होरूप में पूजा जावे यह दिगम्बर जैन परम्परा में मान्य "तीन लोक मे जितने पदार्थ हैं वे सब अपने स्वभावनहीं हो सकता फिर भी लोगो के प्रज्ञानवश ऐसे व्यक्ति रूप परिणमन करते हैं। कोई किसी का कत्ता नहीं कोई साध माने जाते है। किन्तु पाश्चर्य और द ख साथ ही किसी का भोक्ता नही । सत्य ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही करुणा तब होती हैं जब शास्त्रों के जानकार भी परिग्रही नष्ट होता है, स्वय ही मिलता है, स्वयं ही विछहता है, सवस्त्र भट्रारकों का समर्थन करते हैं। ऐसी स्थिति में स्वयं ही गलता है तो मैं इस शरीर का कर्ता भोर भोक्ता लेखक का यह मत ही कल्याणकारी है कि स्वय शास्त्र कैसे?" पढो, स्वय पूजा करो। कुछ लोग यह कह सकते है कि मैं ज्ञायक स्वभाव ही का कर्ता प्रौर भोक्ता हूं और यह वर्णन भट्रारकों के विरोधियों द्वारा लिखा गया है उसी का वेदन एवं अनुभव करता हूं । इम शरीर के जाने इसलिए प्रामाणिक नही माना जा सकता, किन्तु यह वर्णन से मेरा कुछ भी बिगाड़ नही और इसके रहने से कुछ अन्य प्रामाणिक व प्रत्यक्ष साधनो से भी मही सिद्ध होता सुधार नहीं। यह तो प्रत्यक्ष ही काष्ठ या पापाण की है। भट्रारक पंच महावत लेकर परिग्रह रखते है, वस्त्रादि तरह प्रचेतन द्रव्य है।" रखते है. नग्न भी कभी-कभी होते है, पाहार के साथ भेंट "काल (मृत्य) भी दीड-दौड़ कर शरीर ही को प्रादि लेते हैं, मंत्र-तत्र के द्वारा लोगो को प्राकर्षित पकड़ता है और मेरे से दूर भागता है।" करते हैं। "ब मेरा मोह कर्म नष्ट हो गया इसलिए जैसा इस अन्य में श्रावको के तत्त्व चितन के लिए सोलह वस्तु का स्वभाव है वंसा हो मुझे दृष्टिगोचर होता है। कारण भावना, दश लेक्षण, रत्नत्रय, सप्त तत्त्व, नव उसमें जन्म-मरण, सुख-दुःख दिखाई नहीं देते। अब मैं पटवारह अनुप्रेक्षा, बारह तप, बारह संयम, सामधिक किम बात का सोच-विचार करूं?" पालिका भी सुन्दर विवेचन किया गया है। श्रावक के मैं तो चैतन्य शक्ति वाला शाश्वत बना रहने वाला अन्तिम कर्म-समाधिमरण का इतना भावात्मक विवेचन हूँ उसका अवलोकन करते हुए दुःख का अनुभव कैसे हो?" किया गया है कि उसका स्वाध्याय प्रेमियो मे स्वतत्र "अब मेरे यथार्थ ज्ञान का भाव हुमा है, मुझे स्व-पर अस्तित्व स्वीकार किया जाता रहा जैसा कि मैंने प्रारम्भ का विवेक हो गया है। अब मुझे ठगने मे कोन समर्थ है ?" म उल्लेख किया है। 'मैं सिद्ध समान मात्मा द्रव्य मे पर्याय मे" नाना श्री जिनदर्शन-स्तुति का फल स्वर्ग बताते हुए स्वर्ग प्रकार को चेष्टा करता हुमा भी अपनी मोक्ष लक्ष्मी को का वर्णन किया गया है। और समाधिमरण का वर्णन नही भूलता हूं तब मैं लोक मे किसका भय करू ?" कर माक्ष सुख का वर्णन किया गया है। श्रावक कुगुरु- "शरीर जड़ पौर मात्मा चैतन्य-ऊट-बैल का सा इन भूदेव सब इसलिए उसका स्वरूप भी बताया गया है। दोनों का संयोग कैसे बने ?" ग्रन्थ क 'समाधिमरण' में प्रयुक्त समाधिमरण करने "समाधिमरण करने वाला कुटुम्बियों से कहता हैवाले की विचारधारा लेखक के 'शास्त्रीय चितन' की माप हमसे किसी बात का राग न करें। मापके पौर महत्ता सिद्ध करती है, वह विचारधारा एवं परिवार वालों (शेष पृष्ठ १५ पर)
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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