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________________ १४, ३३, कि०३ अनेकान्त शतपथब्राह्मण में लिखित है कि महाराजा जनक की राय (प्रश्वपति) के पास ले गये। कैकेयराज ने उन्हे मेंट तीन उद्भट विद्वान ब्राह्मणो से हुई। महाराजा जनक शिष्यवत देख कर प्रात्मज्ञान प्राप्त करने की विधियाँ ने उनसे 'मग्निहोत्र' विषय के प्रश्न किये जिसका उत्तर वे बतला दी और उपदेश देकर उनकी शकाओं का निवारण न दे सके। महाराजा जनक ने जब उनके उत्तरो को भूल कर दिया। उन्हें समझाई, तब कोषित होकर कहने लगे कि जनक कौषितकी उपनिषद की कथानुसार चित्रगगायिनीने हम सबको अपमानित किया है। महाराजा जनक सभा राजा के पास दो ब्राह्मण समितपाणि गये और उन्होने से चले गये उनमे से एक याज्ञवल्क्य नाम का विद्वान् उनसे प्रात्मज्ञान प्राप्त किया। उसी उपनिषद् मे कथित है (ब्राह्मण) महाराजा जनक के गुणों (विद्वत्ता) को पहिचान कि भारतवर्ष के माने हए विद्वान् गाग्यबालामी पौर गया, और वह उनके पीछे पीछेगया। मार्ग में महाराज काशीराज गजातशत्रु को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था। का जाना जनक से मननय-विनय कर उन में अपनी शंकाम्रो का किन्त पराजित बालामो ने काशीराजका शिष्यत्व स्वीकार समाधान किया। किया और काशीराज ने उसे उसी प्रकार से प्रात्म-विद्या पाजबल्क्य' ने महाराजा जनक को यह कह कर कि का रहस्य बतला दिया। जो ब्रह्म को जाने वह ब्राह्मण से महाराजा जनक ब्रह्मण इसी राजा प्रजातशत्रु (काशीराज) के पुत्र थे भद्रसेन । है इसका प्रचार और प्रसार किया विश्वामित्र जस क्षत्रिय हो सकता है कि यही भद्रसेन २३वें जैन तीर्थंकर श्री ऋषि मान्य हो गए थे, उसी प्रकार महाराजा जनक भी पाशर्वनाथ के पिता हो। जैन शास्त्रों में इनका नाम ब्रह्म-विद्याविशारद ब्राह्मण के विरुद से प्रख्यात हो गये । प्रश्वमैन मिलना है। शतपथ (५.५५) के अनुसार इन्ही यही याज्ञवल्क्य यजुर्वेद के सकलनकर्ता है । गजा भद्रसेन परप्रारुणी ऋषि ने मभिचार कर्म किया था। छन्दोग्योपनिषद् (५.३) में वर्णित है कि श्वेतकेतु 'मारुणि' (पारुणेय) पंचालो की एक सभा मे गया, वहाँ उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त ब्राह्मण बहल-प्रन्यों से क्षत्रिय प्रवाहन जयवली ने उससे कुछ प्रश्न पूछे। उन प्रश्नो ऐसे उदाहरण दिए जा सकते है कि 'मात्मविद्या के पारंगत में से एक का भी उत्तर वह न दे पाया। वह उदास मन क्षत्रिय जन ही थे, ब्राह्मण नही । ब्राह्मणों का धर्म क्रियाअपने पिता के पास लौटा, और ऋषि पिता से उन किये काण्ड वाला यज्ञ ज्ञान का था। उपनिषद् शास्त्र अवश्य प्रश्नों का उत्तर मांगा। पिता गोतम भी प्रश्न के उत्तर से ही मध्यात्म विद्या से सम्बन्धित है। उनमे स्थान-स्थान मनभिज्ञ थे, प्रतएव वह पुत्र सहित जयवली के समक्ष गये पर यज्ञादि क्रिया-काण्ड का विरोध किया गया है। लिखा और उसका शिष्यत्व स्वीकार कर उस पात्मविद्या को है-'प्लवा एते प्रदृष्टा यज्ञरूपा' (मण्डकोपनिषद)। प्राप्त कर लिया। पर्थात यज्ञ रूपी क्रियाकाण्ड उस जीर्ण नौका के समान है उस समय जयवली ने ब्राह्मण गौतम और श्वेतकेतु जिस पर चढ कर पार उतरने की इच्छा रखने वाला जीव भरुणेय को इतना संकेत अवश्य दिया था कि प्राज यह अवश्य डूब जाता है। अत्रियों को इस निधि अध्यात्म (पास्म) विद्या को माप इतिहासकार पार० सी० दत्त की पुस्तक 'सभ्यता का ब्राह्मण जन हमसे प्राप्त कर रहे हैं ! इतिहास' मे लिखा है कि प्रवश्यमेव भत्रियों ने ही इस छन्दोग्योपनिषद् (५.२) भोर शतपथ ब्राह्मण प्रात्मविद्या के उत्तम विचारों को प्रसारित किया। जहां (१०.६.१) मे लिखा है कि पाँच देवज्ञ ब्राह्मणो ने इस अध्यात्म विद्या के विषय मे क्षत्रियों का महत्व था वहाँ जिज्ञासा के साथ कि 'मात्मा क्या है ?' उद्दालक पाहणी पुर्व देश को ही यह गौरव प्राप्त था। पूर्व देश के क्षत्रिय के चरणों में पाणिपात किया। परन्तु भारुणि स्वयं ही राजा विदेह (जनक) एवं काशीराज के अतिरिक्त मगध, प्रास्मा के विषय में संशययुक्त थे, प्रतः उन्होने उन पांचो पांचाल, कैकेय ग्रादि के राजा भी भात्म-विद्या विशारद देवजों के हाथ में समिधा थमाकर उन्हें साथ लेकर कैकेय. थे।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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