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________________ जैन तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में ही क्यों ? १५ कैकेय पंजाब में नहीं, नेपाल की तलहटी में श्रावस्ती उपयुक्त घटपामो पौर तथ्यों से सिख है कि भारतसे उत्तर-पूरब (पूर्व) में स्थित था, इसकी राजधानी देश निवासी क्षत्रिय जन हो पात्म धर्म विशारद थे मोर श्वेताम्बिका थी। ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व (पनुमानित) विशेषकर मगध के। इसलिए ब्राह्मणों ने मगध का सदा श्वेताम्बिका का शासक 'प्रदेशी श्रमणोपासक' (जिन धर्मी) तिरस्कार किया और भाज भी कर रहे हैं। कहते है था। सम्भवतः वर्तमान सीतामढ़ी ही श्वेताम्बिका है। 'ममघ मरे सो गदहा होय' और इसी भय से रूढ़िवादी जन ऋग्वेद में 'कुर्वन्ति कीकटेषु गांव' लिखकर मगध को मरने से पूर्ण वृद्धावस्था में ही काशीवास के लिए मगष निन्दा की गई है। इससे यह सिद्ध होता है कि वैदिक काल प्रदेश का त्याग कर देते हैं । मे मगध देश में वैदिक क्रिया काण्डों का भारी विरोध होता उपर्युक्त तथ्यों से सिद्ध है कि मगध प्रदेश 'मात्मधर्म' था। जन-तीर्थकरों का जन्म तथा अन्य कल्याणक विशेष का प्रमुख स्थल था, वहाँ ब्राह्मणों के यशयाग को सवा हेय कर मोक्ष कल्याणक (२४ मे से २२ ३1) इसी प्रदेश माना गया, उसे प्रश्रद्धा से देखा गया। बारम्बार उनके बिहार के हजारीबाग जिले के सम्मेदशिखर-पर्वत (वर्तमान प्रयत्न निष्फल रहे । प्रतएव उन्होने प्रदेश की बुराई की। नाम पार्श्वनाथ पर्वत) पर हुमा है। कोटाकोटि मनियो ने इस भूमि पर मोक्ष प्राप्त किया है। इस प्रकार से पर्वत तीर्थकर माध्यात्मविद्यानुरागी होते है। त्रियों के का कण-कण पवित्र और तीर्थ क्षेत्र है। जैन धर्मी श्रमणजन यहाँ शिशुकाल मे उन्हे यह प्रात्मविद्या घटी में मिलती वैदिक यज्ञादि का कट्टर विरोध सदा करते रहे । रही, इसीलिए वे क्षत्रिय कुन में ही उत्पन्न होते रहे। CD (पृष्ठ १२ का शेषांश) हमारे चार दिन का संयोग था, कोई तल्लीनता तो थी लोगों ने समयसार के साथ मोक्षमार्ग प्रकाश से भी नहीं। जैसे सराय मे अलग-अलग स्थानों के राहो दो दिशाबोध पाया है, यही कारण है कि अनेक प्रबुटों न इन रात ठहरें और फिर बिछुड़ते समय वे दुःखो हों इसमे दोनो प्रग्थों को घर-घर पहुंचाने में नैमित्तिक योगदान कोन सयानापन है, इसी प्रकार हमे बिछुडते समय दुख दिया है। इन दिनों अनेक प्रमुख सस्थाएँ अध्यात्म प्रचार एवं नही है।" शिक्षण का प्रमुख केन्द्र बन गई है। इन संस्थामो की भोर इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त श्रावकाचार पडित से प० टोडरमल जी एवं उनके प्रेरक पं० राजमल जी, जी की महत्त्वपूर्ण एव ऐतिहासिक रचना है इसके ५० जयचन्द जी जैसे विद्वानों के पाध्यात्मिक एवं वैराग्यअधिकाधिक प्रचार को प्रावश्यकता है। इसके नवीन पूर्ण साहित्य को प्रकाश में लाने का भी प्रयास होना संस्करण के प्रकाशन की आवश्यकता है। पहित जी के पाहिए । पन्य प्रन्य चर्चा-सग्रह अन्य का भी प्रकाशन होना चाहिए ११५२, चाणक्य मार्ग, ताकि उसमें विभिन्न सैद्धांतिक प्रश्नों का उचित समाधान जयपुर (राजस्थान) पाठको को मिल सके। यह बात ठीक है कि इस युग मे
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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