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रामगुप्त और जैनधर्म शीर्षक लेख पर कुछ विचार
0 वेदप्रकाश गर्ग 'मोकान्त' के 'साह शान्तिप्रसाद जैन स्मृति-प्रक' में के सामने दो ही विकल्प थे। या तो वह शत्र की प्रपमानजोधपुर विश्वविद्य लय के इतिहास-विभाग के प्राध्यापक पूर्ण शर्त को स्वीकार कर अपनी प्राण रक्षा करले या डा० सोहन कृष्ण पुरोहित का 'रामगुप्त और जैन धर्म' फिर युद्ध कर पात्मोत्सर्ग कर दे। रामगुप्त ने प्राणरक्षाशीर्षक एक लेख प्रकाशित हुमा है, जिसमें उन्होंने रामगुप्त हित शत्रु की शतं के अनुसार अपनी पत्नी ध्रवदेवी को के कार्य को उचित ठहराते हुए उसे जैन धर्मानुकूल सिद्ध शकाधिपति को देना स्वीकार किया। इस प्रकार उसने करने की चेष्टा को है, किन्तु लेखक का यह प्रयास प्रथम विकल्प को चुनकर कायरता का ही परिचय दिया। मनोचित्य पूर्ण है। प्रतीत होता है कि उन्होंने जैन धर्म के कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति केवल हिंसा से बचने हेतु सिद्धान्तों को ठीक प्रकार से नहीं समझा है।
किसी अन्य को अपनी पत्नी देकर अपनी रक्षा नहीं करना इतिहास-साक्ष्यो से ज्ञात है कि शक नरेश द्वारा घर चाहेगा । प्रतीत होता है कि लेखक महोदय ने जैनधर्म के लिए जाने पर रामगुप्त ने अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को सिद्धान्तों को समझा ही नही है। इसीलिए तो उन्होंने शकाधिपति को देना स्वीकार कर लिया था। अपने इस गमगुप्त की कायरता की जैन धर्म के सिद्धान्तों की प्राड़ कुकृत्य के कारण ही उसकी गुप्त राजवंशावली मे एक मे गलत वकालत की है। जैनधर्म के किसी भी सिद्धान्त कुलकलंकतुल्य की स्थिति स्वीकृत है पौर विशाखदत्त ने से रामगुप्त के कार्य का अनुमोदन नहीं होता। अपने नाटक देवीचन्द्रगुप्तम्' मे इसीलिए उसे एक कायर अहिंसा एक विशिष्ट आचरण है। अहिमा का अर्थ के रूप में चित्रित किया है। डा० पुरोहित ने उक्त कायरता नही है। कायरता तथा उचित हिंसा मे विकल ऐतिहासिक निष्कर्षों से असहमति व्यक्त करते हुए यह होने पर व्यक्ति को उचित हिंसा का अनुसरण करना बतलाने की चेष्टा की है कि रामगुप्त कायर नही था, चाहिए। भन्याय के विरुद्ध उचित हिंसा कायरता से उत्तम अपितु एक कट्टर जैन धर्मावलम्बी नरेश था। इसीलिए है। यह एक प्रकार से हिंसा का ही रूप है। जैन धर्माउसने हिंसा से बचने हेतु अर्थात् जैन धर्म के सिद्धान्तो को नुसार तो अहिंसा वीरो का प्राभूषण है। इसमे कयरत। रक्षा-हेतु अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शकाधिपति को देना को स्थान नहीं है। यह वीर-कृत्य है। इतिहास में ऐसा स्वीकार किया था। लेखक का यह विचार जैनधर्म की कोई उदाहरण नही मिलता, जहाँ किसी जैन धर्मावलम्बी भावना के विपरीत तथा हास्यास्पद है। उनको ऐति- राजा ने अपने धर्म के सिद्धान्तों की रक्षार्थ इस प्रकार का हासिक तथ्यो की यह व्याख्या गलत है।
कदाचरण किया हो। ऐसे सभी राजामो ने जैन धर्मानुयह सही है कि जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना यायी होकर हिंसा का समुचित रीति से पालन करते हुए गया है किन्तु पहिसा का जो रूप लेखक ने ग्रहण किया भी अपने देश, धर्म एव स्वाभिमान मादि की रक्षा की। है, उसके लिए जैनधर्म मे कोई स्थान नही है । मतः वह जैसा प्राप्त जन प्रतिमा लेखों से प्रकट है कि रामअग्राह्य है। यदि ऐसी ही बात थी तो रामगुप्त को पहले गुप्त का झुकाव जैनधर्म की भोर रहा समव प्रतीत ही ससैन्य जाकर शत्रु का प्रवरोध करते हुए युद्ध नहीं होता है किन्तु इसका प्राशय यह नहीं है कि जैन धर्मावकरना चाहिए था, क्या इसमे हिंसा नही थी ? जब हिसा लम्बी होने मात्र से उसको कायरता पर पर्दा पड़ जायेगा की इस स्थिति को ग्रहण किया जा सकता था तो क्या और उसका कदाचरण उचित मान लिया जायेगा। ऐसा उस दशा में हिंसा का वरण नही किया जा सकता था विचारना तो जैन धर्म के सिद्धान्तों का मखौल बनाना है। जबकि पूरे साम्राज्य का सम्मान दाव पर लगा हुआ था। मेरे विचारानुसार डा. पुरोहित का ऐसा सोचना यदि उस समय वह शत्रु से युद्ध करते हुए प्रात्म-बलिदान पनुचित है। रामगुप्त का निकृष्ट माचरण निश्चय ही के लिए तत्पर हाता तो निश्चय ही इस कार्य से वह कायरतापूर्ण एवं निन्दनीय है। उसको उचित सिद्ध करना वीरता का पात्र होता मोर उसको कीति में चार चांद इतिहास के तथ्यों को सत्यात्मकता पर हरताल फेरना है। लगते । हलके से प्रबरोष के बाद घिर जाने पर रामगुप्त
१४ खटीकान, मुजफ्फर नगर, उ० प्र०