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महात्मा मानन्दघन : काव्य-समीक्षा
D डा. प्रेमसागर जैन, बड़ोत महात्मा मानन्दधन ने कबीर प्रादि संत कवियो की पोकर मतवाला हपा चेतन हो परमात्मा को सुगम्धि को भांति ज्योति में विश्वास किया, दीपो में नही, दीपों को पाता है, और फिर ऐसा खेल खेलता है कि सारा संसार बनावट में नहीं, दीपों की भिन्नता मे नही । भांति-भांति तमाशा देखता है । यह प्याला ब्रह्मरूपी पग्नि पर तय्यार के दीप एक ही स्मृति के नाना रूप है। ठीक ऐसे ही एक किया जाता है, जो तन की भट्टी में प्रज्ज्वलित हुई है और ही प्रात्मा में नाना कल्पनामो का प्रारोपण किया जाता जिसमे से अनुभव की कालिमा सदैव फटती रहती हैहै। यह जीव जब निज पर मे रमे तब राम, दूसरो पर
मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अग्नि परजाली। रहम करे तब रहीम, करमो करशे तब कृष्ण मोर जब
___तन माटी भवटाई पिये कस, प्राग अनुभव लाली । निर्वाग प्राप्त करे तव महादेव की सज्ञा को प्राप्त होता
प्रगम प्याला पीयो मतवाला, चिह्नो प्रध्यातमवासा । है। अपने शुद्ध प्रात्म-स्वरूप को स्पर्श करने से पारस
मानन्दघन चेतन ह खेल, देख लोक तमासा ॥ और ब्रह्माण्ड की रचना करने से इसे ब्रह्म कहते है। इस प्रेम के प्याले को यह बेहोशी मूर्छा नहीं है, अपितु भौति यह प्रात्मा स्वय नेतनमय और निरुकम है ऐसी मस्ती है, जिसमें प्रेमास्पद अधिक स्पष्ट दिखाई देता भानन्द पन ने ऐसा माना है। प्रानन्दधन की भांति ही है। यह प्रेमी का जागरण है. जागत प्रवस्था है। जायसी कबीर ने भी एक ही मन को गोरख, गोविन्द और औघड़ के प्याले मे तो ऐसो बेहोशी थी कि रत्नसेन पद्मावती पादि नामों से अभिहित किया है। सन्त सुन्दरदास का को पहचानना तो दूर, देख भी न सका, फिर भी वह कथन तो महात्मा प्रानन्दधन से बिल्कुल मिलता-जुलता
इतना जागृत था कि शुन्य दृष्टि के मार्ग से ही प्राणों को है। उनके अनुसार एक ही प्रखण्ड ब्रह्म को भेद-बुद्धि से समर्पित कर दिया। उसकी अधिक बेहोशी ही अधिक नाना संज्ञाएं होती है, जैसे एक ही जल वापी, तडाग पौर
जागरण था। जायसी का कथन है - कूप के नाम से, तथा एक ही पावक-दीप, चिराग और
जोगी दृष्टि सों लीना, मसाल मादि नामों से पुकारा जाता है। सन्त दादूदयाल
नैन रोपि नैनाहि जिउ दीन्हा । ने एक ही मूलतत्त्व को प्रलह पोर राम सज्ञाएं दी हैं।
जाहि मद चढ़ा परातेहि पाले उन्होने यहाँ तक लिखा है कि जो इनके मूल मे भैद की
सुधि न रही प्रोहि एक प्याले । कल्पना करता है, वह. झूठा है।
प्रेम का तीर तो ऐसा पैना है कि वह जिसके लगा भगवद्विषयक प्रेम के क्षेत्र मे 'प्रेम के प्याले' और चाहे वह जैन हो या अन्य सन्त, जहाँ का तहाँ रह गया । 'भचक तीरो' की बात जानी पहचानी है। वह केवल महात्मा पानन्दधन की दृष्टि मे, "कहा दिखावू मोर कू, जायसी पोर कवीर में ही नहीं, अपितु जैन कवियो में भी।
कहा समझाऊँ भोर । तीर पचुक है प्रेम का लाग सो रहै देखने को मिलती है। कवि भूधरदास ने सच्चा ममलो
ठोर ॥" कबीर ने सबद को ही तीर मान कर लिखा है, उसी को माना है, जिसने प्रेम का प्याला पिया है,
"सारा बहुत पुकारिया पीड़ पुकार मौर । लगी चोट सबद गांजारू भाग प्रफीम है, दारू शराब पोशना। को, रह्या कबीरा ठौर ॥" जायसी ने प्रेम वाण के घाव प्याला न पीया प्रेम का, अमली हुमा तो क्या हुमा ॥ को प्रत्यधिक दुखदायी माना है। जिसके लगता है, वह न
महात्मा मानन्दधन ने लिखा है कि प्रेम के प्याले को तो मर ही पाता है और न जीवित ही रहता है। बड़ी