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१८ ३३, किरण
अनेकान्त बेचनी सहता है।
कबीर की विरहिणी में वह स्थिरता नहीं है, जो योगी की परमात्मा के विरह में खिलवाड़ नही पा सकती समाधि में होती है। यहां प्रानन्दधन मौर कबीर की विन्तु फिर भी निसुनिए सतों की अपेक्षा जैन कवियों में विरहिणी में अन्तर है। कबीर की विरहिणी हैसंवेदनात्मक अनुभूति अधिक है । कबीर के 'विरह भुवगम विरहिन ऊभी पथ सिर पथी बुझे घाय । पैसि कर किया कलेजे घाव, साधु अंग न मोड़ ही, ज्यो एक सबद कहि पोव का कबरु मिलेंगे प्राय ।। भाव त्यों खाय।' से प्रानन्दधन का 'पोवा बीन सुबबुध बहुत दिनन की जोवती बाट तुम्हारी राम । बूंदी हो विरह भुग निशासमे, मेरी सेजही खूदी हो।' जिब तरस तुझ मिलन कू, मन नाही विश्राम ।। मधिक हृदय के समीप है। इसी भाँति कबीर के “जैसे विरहिणियाँ सदैव दूरस्थ पतियों के पास जाने की चाहना जल बिन मीन तलफ ऐसे हरि बिनु मेरा जिया कलपं।" करती रही है। प्रानन्दघन की विरहिणी भी जाना से बनारसीदास के 'मैं विरहिन पिय के प्राचीन, यों तलफो चाहती है। रात अवेरी है, घटाएं छाई हुई है, हाथ को ज्यों जल बिन मीन ।' मे अधिक सबलता है।
हाथ नही सूझता और पति तक जाने का मार्ग दुर्गम है। मानन्दधन की विरहिणी की अग्वेिं पिय का मार्ग विरहिणी की प्रार्थना है कि यदि करुणा करके सुधाकर निहारते-निहारते स्थिर हो गई हैं, जैसे कि योगी ममाधि निकल पावे तो मार्ग प्रशस्त हो जावे, और यदि चन्द्र में और मनि ध्यान में होता है। वियोगी और योगी दोनो प्रियतम का मन हो, तब तो वह घर बैठे ही कृत्कृत्य हो की चेतना बाहर से सिमट पर अपने प्रिय पर केन्द्रित हो जायेगीजाती है, और इस दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नही है। "निसि अघियागे घन घटारे, पाउ न बाट के फन्द । प्रिय पर टिकी चेतना भी समाधिष्ठ है और योगी का मन करुणा करहु तो निरवहु प्यारे, देखु तुम मुख चन्द ।। भी ध्यानस्थ है। एक का माध्यम प्रेम है और दूसरे का जायसी के पद्मावत की नागमती भी, दिल्ली में बन्दी ज्ञान । मागे चल कर, रत्नाकर ने 'उद्धवशतक' में रत्नसन के पास तक जाने को तैयार है, किन्तु वह केवल वियोगिनी गोरी के भोग को योगी के योग से कम नही सुधाकर के निकलने से ही मार्ग के पेनों को नही सुलझा माना । दोनों ही केन्द्रस्थ हैं। जिस वियोगिनी में यह पायेगी, उसे एक मार्ग-दर्शक चाहिए। प्रानन्दधन की तन्मयता है, वही श्रेष्ठ है। मानन्दघन को वियोगिनी इसी विरहिणी को ऐसे किसी पालम्बन की प्राकांक्षा नही है। स्थिर दशा में है, वह अपने वियोग की बात किसी से वह वह सुधाकर के उर मात्र से तृप्त है। वह सुधाकर मे नहीं पाती। उसके मन का चोला प्रिय का मुख देखने पर प्रिय मुख-दर्शन की प्राकांक्षा करती है । ऐसा वह कर भी ही हिल सकता है. अन्यथा डगमगाने का या किसी प्रकार लेगी--प्रिय की तन्मयता से । यदि तन्मयता हो तो प्रिया को चपलता का प्रश्न ही नहीं है
कही भी प्रिय को देख सकती है, अपितु वह स्वय प्रिय रूप "पंथ निहारत लोलणे, दुग लागी मंडोला। हो सकती है, ऐसा कुछ इशारा प्रानन्दधन का है । जोगी सुरत समाधि मे, मुनिध्यान झकोना। नागमनी को गुरु की प्रावश्यकता है; किन्तु मानन्दधन की कौन सुन किनकुं कहु, किम भाड़ मैं खोना ।। विरहिणी पे स्वय सामर्थ्य है, वहां तक पहुंचने की। हरे मुख दीठे हले, मेरे मन का चोला ।" नागमती सखी से कहती है
पत्य निहारने की बात कबीर ने भी कही है। उन्होने "को गुरु प्रगुवा होइ सखि, मोहि लाव पथ माह । लिखा है कि विरहिणी मार्ग के दोनों सिरों पर दौड़-दौड़ तन मन-धन बलि-बलि करों, जो रे मिलावे नाह॥ कर जाती है और रास्तागीरो से अपने पति के माने की विरह में खान-पान छट जाता है, इसे सभी कवियों ने बात पूछती है। उसमे बेचनी है। माध्यमिक विरह मे दिखाया है-चाहे वह जैन हो या मजन । मन मानन्दबेचनी सात्विकता का चिह्न तो है, किन्तु जब तक उसमे धन को विरहिणी में भी भोजन पोर पान की रञ्चमात्र तन्मयता नहीं पाती, चपलता नही छुटेगी। इसी कारण भी रुचि नहीं है। उसने प्रिय की याद मे सब कुछ त्याग