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________________ प्राचार्य कुन्द-कुन्द को प्राकृत । श्री पत्रचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली प्रायः सभी मानते है कि प्राचार्य कुन्न कुन्द ने जैन विचारपूर्ण मोर पंनी है - उससे सिद्धान्त के समझने में गोरसेनी प्राकृत को माध्यम बनाकर ग्रन्थ निर्माण किए। सभी को प्रामानी अनुभव हुई होगी पोर सिद्धान्त सहज कुछ समय से उनके ग्रन्थों मे भाषा की दृष्टि से सशोधन हो प्रचार में प्राता रहा होगा । यत: इस भाषा में सभी कार्य प्रारम्भ हो गया है और कहा जा रहा है कि इसमे प्राकृतो के शब्दो का समावेश रहता है ----शा के किसी लिपिकारों की सदिग्धता या प्रमावगानी रही है। ये ॥क रूप को ही शुद्ध नहीं माना जाता पपितु सुविधानुसार कारण कदाचित हो सकते है पोर इनके फलस्वरूप अनेक सभी रूप प्रयोगो में लाए जाते है-जैसा कि प्राचार्य हस्तलिखित या मुद्रित प्रतियों में एक-एक शब्द के कद-क-द ने भी किया है। विभिन्न रूप भी हो सकते हैं। ऐसी स्थिति मे जबकि जनशौरसेनी के सम्बन्ध मे निम्न विचार दृष्टव्य पाचार्य कन्द-कन्द की स्वयं की लिखित किसी अन्य की है और ये अधिकारी विद्वानो के विचार हैंकोई मूल प्रति उपलब्ध न हो, यह कहना बड़ा कठिन है In his observation on the Digamber test कि प्रमक शब्द का अमक रूप ही प्राचाय कुन्द-कुन्द ने Dr. Denecke discusses various points abont अपनी रचना में लिखा था। तथा इसकी वास्तविकता में some Diganber Prakirit works . He remarks किसी प्राचीन प्रति क) भी प्रमाण नही माना जा सकता, that the language of there works is influenced यन ---'पुराणमित्येव न माधुसर्वम ।' by Ardbamagdhi, Jain Maharastrı weich जहाँ तक जैनणीरगनी प्राकृत भाषा के नियम का Approaches it and Saurseni.' प्रश्न है और कुन्दकुन्द की रचनामो का प्रश्न है --उनकी -Dr. AN. Upadhye पाकृत मे उन सभी प्राकृतो के रूप मिलते है जो जैन (Introduction of Pravachansara) शौरसेनी को परिधि मे पाते हैं। उन्होन मवधा न तो "I be Praksit of the sutras, the Gathas as महाराष्ट्री को अपनाया और न सर्वधा शौरसेनी अथवा well as of the commentary, is Saurseni अर्धमागधी को ही अपनाया। अपितु उन्होने उन तीनो influenced by the order Ardhamagdhi on the प्राकृतों के मिले-जुले रूपो को अपनाया जो (प्राकृत) जैन one hand and the Maharashtra on the other, गौरसेनी में सहयोगी है-जैनोरमेनी प्राकृत का रूप and this in exectly the nature of the language निश्चय करने के लिए हम भाषा-विशेषज्ञों के अभिमत called 'Jain Saurseni.' -Dr. Hiralal जान लें ताकि निर्णय मे सुविधा हो (Introduction of षट् खंडागम P. IV) 'मागध्यवन्तिजा प्राच्या मरसेन्यर्धमागधी। 'जैन महाराष्ट्री का नाम चुनाव समुचित न होने पर बाल्हीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषा प्रकीतिताः॥' भी काम चलाऊ है। वही बात जैन शोरसेनी के बारे में यद्यपि प्राकृत वैयाकरणों ने जैन शौरसेनी को पोर जोर देकर कही जा सकती है। इस विषय में सभी प्राकृत के मूल भेदों में नही गिनाया, तथापि जैन साहित्य तक जो थोड़ी-सी शोध हुई है, उससे यह बात विदित हुई में उसका अस्तित्व प्रचुरता से पाया जाता है। दिगम्बर है कि इस भाषा मे ऐसे रूप और शब्द है जो शौरसेनी मे साहित्य इस भाषा से वंसे ही मोत-प्रोत है। जैसे बिल्कुल नही मिलते बल्कि इसके विपरीत वे रूप पौर पागम श्वेताम्बरमान्य अर्धमागधी से । सम्भवतः उत्तर शब्द कुछ महाराष्ट्रो और कुछ प्रर्धमागधी में व्यवहृत से दक्षिण मे जाने के कारण दिगम्बराचार्यों ने इस (जैन होते हैं।' शोर सेनी) को जन्म दिया हो---प्रचार की दृष्टि में भी --पिशल, प्राकृत भाषामो का व्याकरण पु. ३८ ऐसा किया जा सकता है। जो भी हो, पर यह दृष्टि बड़ी प्राचीन भागमों और प्राचार्य कुन्द-कुन्द की रचनाओं
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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