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१२, वर्ष ३३, कि०२
अनेकान्त
उसका विकास हुमा। जिनसेन कृत आदिपुराण में यहां वैदिक पोर जैन सिद्धान्त मे भनेक समानतायें उल्लिखित है कि भगवान ऋषभदेव के जन्म कल्याण मे दष्टव्य हैं। वैदिक सिद्धान्तानुसार नाटयोत्पत्ति, ब्रह्मा इन्द्र अनेक देवतागों के साथ माया और भगवान को (देव) ने की, उसका अभिनय भी भूतल पर सर्वप्रथम पाण्डुक शिला पर स्नान कराने के वाद अयोध्या नगरी मे देवो द्वारा हुप्रा । शंकर ने ताण्डव नृत्य से पोर पार्वती ने लोटा तदनन्तर उसने नगरवासियों का मानन्द देखकर लास्य से इसमें भारी योगदान दिया। जैन सिद्धान्त के मानन्द नाम के नाटक में अपना मन लगाया। पहले अनुसार भी इन्द्र (देव) ने नाट्योत्पत्ति की प्रथम अभिनय उसने नत्य किया इन्द्र स्वय प्रधान नृत्यकार था कुलाचलों देवों ने कल्याणकों पर किया इन्द्र ने ताण्डव प्रौर सहित पृथ्वी रंगभूमि नाभिराज प्रादि उत्तम-उत्तम पुरुष देवांगनारों ने लास्य नृत्य से इसमे योगदान किया।" दर्शक, ऋषभदेव प्राराध्य, धर्मार्थकाम तीन पुरुषार्थों की एक समानता मौर, उनके अनेक पाश्चात्य विद्वानो सिद्धि तथा परमानन्द मोक्ष की प्राप्ति होना ही उसका ने मेपोल पर्व से नाट्योत्पत्ति मानी है। यह उत्सव मई के फल थे।" पहले इन्द्र ने गर्भावतार सश्बन्धी, फिर जन्मा- महीने में होता है जिसमें एक स्तम्भ (पोल) गाडकर स्त्री भिषेक सम्बन्धी और फिर भगवान के पूर्व के महाबल पुरुष उमके चारों ओर नाचते हये उत्सव मनाते है। पाटि दशावतारी को लेकर नाटक किये। इन्द्र ने पहले भारतीय विद्वान प. गमावतार शर्मा ने भारतीय मंगलाचरण, फिर पूर्व रंग फिर ताण्डव नृत्य नान्दी मंगल इन्द्रध्वज उन्मन कोनी करने के बाद रंगभूमि में प्रवेश किया इन्द्र के साथ अनेक ।
सिद्धान्त मान लिया जाये तो जैन परम्पग में भी इन्द्रध्वज देवियों ने भी नत्य किया । इन्द्र उसका सूत्रधार जैसा विधान है जो सतत पानी का
विधान है जो सम्भवतः प्राचीन काल में भारी उत्सव के
सारी, प्रतीत हो रहा था।
साथ मनाया जाता था। इस विधान में भी एक विशाल पुरुदेवचम्पू में भी ऐसा ही वर्णन उपलब्ध होता है मण्डप बनवाकर उसके प्रांगण में एक चबूतरे पर ऊची वहाँ इन्द्र ने प्रानन्द नाम का नाटक उत्पन्न किया और विशाल ध्वजा का प्रारोहण किया जाता है " हिन्दी स्वयं उसका अभिनय देवतामों के साथ किया ।
इन्द्रध्वज विधान की रचना हाल में ही प्रायिकारत्न श्री ऐसा प्रतीत होता है कि तीर्थंकरो के कल्याणकों पर ज्ञानमती जी ने की है। ग्रन्थ सम्पादक थी रवीन्द्र कुमार जो इन्द्रादि देवता पाते थे वे गाजे-बाजे के साथ भूनल पर जैन की सूचनानुसार यह ग्रन्थ मूलत: संस्कृत मे है जिसके कल्याणक मानकर पौर नृत्योत्सव करके चले जाते थे बाद रचयिता भट्टारक विश्वभूषण जी हैं। इसकी प्रतियां में साधारण जन भी समय-समय पर मनोरजनार्थ कल्याणकों झालरापाटन, इन्दौर, सरधना, दिल्ली, टीकमगढ मादि को मानते थे और वैसा ही अभिनयादि किया करते थे के भण्डारों मे हैं हमारी दष्टि में अभी यह ग्रन्थ नहीं धीरे-धीरे इसी परम्परा ने माधुनिक नाटक का रूप ले माया है। हो सकता है इस ग्रन्थ से इस विषय पर कुछ लिया। प्राज भी जैन परम्परा में 'पचकल्याणक नाटक, विशेष प्रकाश पड़े। प्रवक्ता, संस्कृति विभाग (पंचकल्याणक नृत्य)' मादि नाटक स्थान-स्थान पर किये
श्री के. के. जैन डिग्री कालेज, जाते हैं।
खतौली (मुजफ्फर नगर) १२. मादिपुराण : भारतीय ज्ञानपीट १४१६५
१८. " "एकललेखाः सहर्षमानन्दनाटकं संभूय संपाद्य १३. वही १४।१००-१०१
स्वभावनमभजन्त।" वही गद्य १०६५ पृष्ठ ३७१ १४. वही १४११०३-१.७
१६. प्रादि पुराण १४११५५ १५. बही १४।१३२-१५६
२३. स० सा की रूपरेखा : व्यास तथा पाण्डेय पृष्ठ ९४ १६. वही १४११५४
२१. इन्द्रध्वज विधान, हस्तिनापुर १९७८ भूमिका पृ. २५ १७. पुरुदेवचम्पु: भारतीय ज्ञानपाठ, पचन स्तबक गए २२ वही गापादकीय पृष्ठ ७
संख्या ३४ से ४१ तक पर ००.२१२