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________________ १४, वर्ष ३३ कि. २ अनेकान्त में इसी माधार पर विविध शब्द रूपों के प्रयोग मिलते हैं-दिगम्बर प्राचार्य किसी एक प्राकृत नियम को लेकर नहीं चले अपितु उन्होंने अन्य प्राकृतों के शब्द रूपों को भी अपनाया। अत: उनकी रचनामों में भाषा की दृष्टि से संशोधन की बात सर्वथा निराधार प्रतीत होती है। प्राचार्यों के द्वारा अपनाए गए विविध शब्दरूपों की झलक पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत है हमें प्राशा है कि पाठक तथ्य तक पहुंचेंगे। दि० जैन पागमों में एक ही प्राचार्य द्वारा प्रयुक्त विविध प्रयोग :षट्खं डागम [१,१,१] (महाराष्ट्रो के नियमानुसार '' को हटाया)--- उपजा (दि) पृ० ११०, कुणइपृ० ११०, वणंह पृ० १८, परुवेइ पृ० ६६, उच्च पृ० १७१, गच्छह पृ० १७१ दुक्का १७१, भणइ पृ. २६६, संभव पृ० ७४ मिच्छाइट्रिपृ० २०, वारिसकालो कम्रो पृ० ७१-...इत्यादि । (शौरसेनी के अनुसार 'व' को रहन विया)सुबपारगा पृ० ६५, वर्ण दि पृ० ६६, उच्चदि पृ० ७६, परुवेदि पृ० १०५, उपक्कमोगदो पृ० ८२, सबं (तं) पृ० १२२, णिग्गदो प० १२७, ('' लोप के स्थान में 'य" सभी प्राकृतों के पनसार) सुयसायरपारया पृ० ६६. भणिया पृ० ६५, सुयदेवया पृ० ६, सुयदेवदा पृ० ६८, वरिसाकालोको'०७१, णवयसया (ता) पृ० १२२ कायात्रा पृ० १२५, गिगया १२७, सूयणाणाञ्च (तिलोय पण्णत्ति) पृ०३५ लोप में 'य' और प्रलोप (दोनो) कुन्द-कुन्द 'अष्टपाहर के विविध प्रयोगप्रम्य नाम शब्द पौर गाथा का क्रम-निर्देशदर्शनपार होदि हवाह हवादि २६ २० सूत्रपाहुड ११,१४,१७ २०,२४ चरित्रपाहूड ३४३६ बोवपाहुड ११.२६ भावपाहुड ८८,६५,७३ १२७,१४० .४३,१५१ ५१,२८,७६ मोक्षपाहुड ७०,८३ ५२,६० हवई १४,१८,३८ ५१,८४ ८७,१०० १०१, ४७ लिंगपाहुड २,१३,१४ शीलपाहुड नियमसार १८,२६,५४ १०,१७२ ५५,५८६४ ५६.५७ १७३,१७६ ११३,१४१ ८२,८३,६४ १६१,१६२ १०७,१४२ १६६१७१ १७४,१७५ १. 'जन महाराष्ट्री मे लुप्त वर्ण के स्थान पर 'य' श्रुति का उपयोग हुपा है जैसा जैन शौरसेनो मे भी होता है षट्खडागम भूमिका पृ० ८६ २. 'द' का लोप है 'य' नहीं किया। होइ ५,२० १५०
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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