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________________ प्राचार्य कुन्च-कुन्द की प्राकृत इसी प्राकार मन्य बहुत से शब्द है जो विभिन्न रूपों लोए या लोगेमे दि० जन मागमों में प्रयुक्त किये गए हैं । जैसे--- षखंडागम मंगलाचरण-मूलमंत्र णमोकार में 'लोए' 'गइ, गदि । होइ, होदि, हवदि । णामो, णादो। पक्षुण्णरूप में लिखा गया है जो मावाल-बद्ध में बिना किसी भूयस्थो, भूदत्थो। सुयकेवली, सुदकेवली। णायल्यो, भ्रांति के श्रद्धास्पद बना हुमा है। पिशल ने स्वयं लिखा णादवो। पुग्गल, पोंग्गल । लोए, लोगे । मादि: है-प्राकृत में निम्न उदाहरण मिलते है-'एति' के स्थान में 'एई' बोला जाता है, 'लोके' को 'लोए कहते हैं।'-- उक्त प्रयोगों में 'द' का लोप और मलोप तथा लोप परा १७६ । के स्थान में 'य' भी दिखाई देता है। स्मरण रहे केवल शौर. पैरा १७६ हो- जैन शौरसेनी की प्राचीनतम सेनी को ही 'द' का लोप मान्य है-दूसरी प्राकृतो मे 'क हस्त-लिपियां प, प्रा से पहले और सभी स्वरों के बाव ग च ज त द यब' इन ब्यन्जनों का विकल्प से लोप होने के पर्थात् इनके बीच में 'य' लिखती है'--- कारण-दोनों ही रूप चलते है। जैन शोरसनी मे अवश्य ___'वोत्त' रूप जैन महाराष्ट्री का है भोर 'बत्तु' ही महाराष्ट्री, अर्धमागधी भोरशोर सेनी के मिले-जले शौरसेनी का। पिशल ने लिखा है 'शौरसेनी मे 'वच' की रूपों का प्रयोग होता है। सामान्य क्रिया का रूप कभी 'वोत्तु नही बोला जाता। पुग्गल और पोंग्गल-- किन्तु सदा वत्तुं ही रहता है।'-परा ५७० प्रवचनसार मादि में उक्त दोनो रूप मिलते है। जैसे उक्त पूरी स्थिति के प्रकाश में ऐसा ही प्रतीत होता गाषा-२.७६, २-६३ भोर गाथा २-७८, २-६३ है कि 'जैन शौरसेनी' में प्रमागधी, जन महाराष्ट्री मोर शौरसेनी इन तीनो प्राकृतो के प्रयोग होते रहे है, मतः पिशल व्याकरण में उल्लेख है-- 'जैन शौरसेनी मे मागमों गे पाए (उक्त नियम से सबषित) सभी रूप ठीक पुग्गल रूप भी मिलता है" -परा १२४ । इमी पंग मे है। यदि हम किसी एक को ठीक पोर माय को गलत पिशल ने लिखा है "संयुक्त व्यजनों से पहले 'उ' को 'प्रो' मानकर चलें तब हमें पूरे प्रागम पोर कुन्दाकुन्द के सभी हो जाता है........ ....."। मारकण्डेय के पृष्ट ६६ के पग्यों के शब्दों को (भाषावष्टि से) बदलना पड़ेगा यानी अनुसार शौरसेनो में यह नियम केवल 'मक्ता' पौर हमारी दृष्टि मे सभी गलत होगे-जैसा कि हमें इष्ट 'पुष्कर' में लागू होता है। इस तथ्य की पुष्टि सब प्रथ नही और न जैन शौरसेनी प्राकृत को ही ऐसा इष्ट होगा। करते है।"-पैरा १२४. इसी मन्दर्भ मे यदि सभी जगह शौरसेनी के नियमानुसार दूसरी बात यह भी है कि 'मात-सयोगे वाला (उ को 'द' रखना इष्ट होगा ता-- श्रा करने का) नियम मभी जगह इष्ट होता तो 'चुक्केज' 'पढम होई' या 'पटम हवाइ मंगल' के स्थान पर भी (गाथा ५) पुवकालशि (गाथा २१) वुच्चदि, दुक्ख 'हवदि' पढ़ना होगा जमा कि चलन जैन के किसी भी (गापा ४५ समयसार) पादि मे भी उकार को मोकार मम्प्रदाय मे नही है, भादि । पाठक विचारें। होना चाहिए। पर,ऐसा न करके दोनो ही रूपों को स्वीकार वीर सेवा मन्दिर किया गया है-'क्वचित् प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्तिः। २१, दरियागज नई दिल्ली 000
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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