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क्या तिलोयपण्णत्ती में वणित विजयार्थ ही वर्तमान
विन्ध्य प्रदेश है ?
0 डा. राजाराम जैन यतिबषभ कृत तिलोयपण्णत्ती शौरसेनी प्राकृत का २५ योजन ऊंचा, ५० योजन प्रमाण मूल में विस्तार युक्त प्रदभुत काव्य ग्रन्थ है। उसका रचनाकाल विक्रम को तया ६१ योजन को नोव सहित है। वह पूर्वापर समुद्र ५वीं-६वी सदी के पासपास माना गया है। उसमे तीनो को स्पर्श करने वाला नया ३ थणियो मे विभक्त है। लोको सम्बन्धी भूगोल एव खगोल-विद्या का सुन्दर वर्णन प्राचार्य जिनसेन एव हेमचन्द्र ने भी इसी से मिलतामिलता है। यद्यपि उसमे विन्ध्य का नाम स्पष्टरूपेण जुलता वर्णन किया है। जिनसेन के अनुसार वह गगा एव नहीं मिलता। वह विजया प्रदेश प्रथवा विजयाचं सिन्य नदियों के नीचे स्थित है।' पर्वत के रूप में उल्लिखित है । किन्तु यदि
वर्तमान विन्ध्यपर्वत को स्थिति भी विजयाई जैसा वर्तमान विध्य प्रदेश का विविध परिस्थितियो
ही है। वह अपनी लम्बाई, चौडाई एवं ऊचाई के लिए को ध्यान में रखकर उमका अध्ययन किया जाय ता।
नो प्रसिद्ध है हो। यह विशाा ३ श्रेणियों में विभक्त है। तिलोयपणती का विजयाधं ही विन्ध्य प्रतीत होता है।
इन धणियो क नाम है, मकाल, मतपुडा एव पारियात्र। इस दिशा मे सम्भवतः कोई कार्य नही हुया है। प्रतः ।
पारियात्र वि यमाला का पश्चिमी छोर है, जो चम्बल के शोष-प्रजो का ध्यान भाषित करने के लिए यहाँ कुछ
उद्गम स्थल से लेकर खम्भात की खाड़ो तक फैलता तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे है :
तिलाय पण्णत्ती में बताया गया है कि भरतक्षत्रक
तिलोयपणती में चालाया गया है कि विजया के बहमध्यभाग मे रजतमय पोर नाना प्रकार के उत्तम पर्व पश्चिम दिशा की और दक्षिणी सीमा पर ५० एवं रत्नों से मणीक विजयाचं नामक एक उन्नत पर्वत है, जो उत्तरी सीमा पर ६. नगर बसे हुए है। १. भरहग्विविवहमज्झे विजय द्धोणाम भूधरो तुंगो।
पुरोत्तम, चित्रकूट, महाकुट, स्वर्णकूट, त्रिकूट, २ जदम मो चे?दि हु जाणावर ग्यण रमणिजो॥
विचित्रकूट, मधकूट, वधवकूणट, सूर्यपुर. चन्द्र, रणवीस जोयणदनो वत्तो तदुगुणमूलविक्खमो।
नित्योद्योन, विमखी, नित्यवाहिनी एव मुमुखी। उदयतुरिमसगढी जलणिहि पट्टो तिसढिगयो।।
उत्तर श्रेणी के ६० नगर---अर्जनी, प्राणी, कैलाश तिलाय०४/१०७-१०८
वारुणी, विद्युत्प्रभ, किलकिल, चूड़ामणि, शशिप्रभ, २-४. दे० प्रादिपुराण में भारत - पृ० ११०
वशाल, पुष्षचूल, हंसगभ. बलाहक, शिवशंकर, ५.६. दे० प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल (वा० सी०
श्रीमौष, चमर शिवमन्दिर, वसुमत्का, वसुमती, ला द्वारा लिखित) (लखनऊ, १६७३) पृ० ५०२.३
सर्वार्थपुर (सिद्धार्थपुर), शत्रुजय, केतुमाल, ७. दक्षिण श्रेणी के ५० नगर-किनामित, किन्नर
सुरपतिकान्त, गगननन्दन, अशोक, विशाक, वीतशोक, गीत, नरगीत, बहुकेतु, पुण्डरीक, सिंहध्वज, अलका, तिलक, प्रवरतिलक, मन्दर, कुमद, कुन्द, श्वेतकेतु, गरुडध्वज, श्रीप्रभ, श्रीधर, लोहार्गल,
गगनवल्लभ, दिव्यतिलक, भूमितिलक, गन्धर्वपुर, परिजय वजार्गल, बलाढ्य, विमोचिता, जयपुरो, मुक्ताहर, नैमिष, मग्निज्वाल, महाज्वाल, श्रीनिकेत, शकटमुखी, चतर्मुख, बहुमुख, परजस्का, विरजस्का, जयावह, श्रीनिवास, मणिवत्र, भद्रवश्व, धनजय, रचनपुर, मेखलान, क्षेमपुर, अपराजित, कामापुष्प, माहेन्द्र, विजयनगर, सुगन्धिनी, बजार्द्धतर, गगनचरी, विजयचरी, शुक्रपुरी, संजयन्त नगरी, गोक्षीरफेन, प्रक्षोभ, गिरिशिखर, घरणी, वारिणी जयन्त, विजम, वैजयन्त, क्षेमंकर, चन्द्राभ, सूर्याम, (धारिणी), दुर्ग दुर्दर, सुदर्शन, रत्नाकर एवं रत्नपुर।