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________________ आगम सूत्रों की कथाएं इतिहास नहीं है । 'धनेकान्त' वर्ष ३२ किरण ३-४ जुलाई-दिसम्बर, १६७६ के अंक में डा० देवसहाय त्रिवेद का बुद्ध और महावीर' लेख प्रकाशित हुआ है उसमे जैन और बौद्ध साहित्य में भागत कथामो मे व्यक्तियों के नाम, गोत्र, राजपानी युद्ध आदि के वर्णन कर मिलान किया है और उनके माघार पर यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया गया है कि इस वर्णन मे विसंगति है अतः दोनो पाचयं बुद्ध धर महावीर एक समय नहीं हुए । किन्तु उपयुक्त ग्राधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं क्योंकि जैन साहित्य में वर्णित कथाए इतिहास नहीं है ये भाव कथाए है, इन कथाओं में उल्लिखित नाम, गोत्र राजधानी, माता-पिता के नाम भी जातिवाचक या व्यक्तिवाचक संज्ञाएं न होकर गुणवाचक भाववाचक सज्ञाएं है। उदाहरण के रूप में गौशालक की कथा मे प्रयुक्त सर्वानुभूति, सुदर्शन सिंह अणगार, हालाहाला, का लिया जा सकता है यह कथाए कर्म सिद्धान्त से संबंधित नियमों व सापको के जीवन से सम्बन्धित प्रान्तरिक स्थितियो का रूपकात्मक व प्रतीकात्मक वर्णन है। यदि इन कथाओंों को रूपकेन समझा जावे तो समाज मे बहु मान्यताप्राप्त भगवती सूत्र में आये हुए कथानक, घोड़ा खूं खूं क्यों करता है, दिशा क्या है, सूर्य क्या है, शालि वृक्ष किस गति मे जायेगा आदि अनेक प्रश्नोत्तर ऐसे है जिनका श्री महावीर व गौतम स्वामी के नाम के साथ जोड़ना अटपटा लगता है। ऐसे ही शिलाकम्टक सग्राम में हाथी घोर घोड़ों के नरक मे जाने की बात किसी भी प्रकार बुद्धि गाह्य नहीं हो सकती। इसी तरह उपासक दशांग मे देवो द्वारा बायको को दिया गया उपसर्ग और अनुत्तरोपपातिक में वर्णित श्रेणिक के सभी पुत्रो की दीक्षा पर्याय और अनशन पर्याय २-३ समानकाल में बंधी होना ऐतिहासिक रूप मे बुद्धिप्रा नहीं हो सकती । यहीं यह कहना अनुपयुक्त नही होगा कि उपासक दशाग सूज का देव देव है, पूर्वकमोंदय का द्योतक है' धनुतरोपातिक का श्रेमिक, श्रेणिक करण करने वाला साधक हैं न कि श्रेणिक नाम का कोई व्यक्ति । द्वीप प्रज्ञप्ति मे भी कथित पर्वत, नदी, कुण्ट, जम्बू श्री श्रीचन्द गोलेछा चैत्य, दो सूर्य, दोन्द्रादि का वर्णन भाज भूगोल के साधारण विद्यार्थी के गले नहीं उतरता । वास्तव में यह भी सब साधक के जीवन से सम्बन्धित माध्यात्मिक स्थितियों के प्रतीक है। यही कारण है जो हमे ऐतिहासिक व भौगोलिक दृष्टि छोड़कर दूसरी दृष्टि से विचार करने को बाध्य करते हैं। अभी तक विद्वद्वगं पूर्व से चली भा रही परम्परा व धारणा के बहाव में बहते हुए व पश्चिमी विद्वानों का अनुकरण करते हुए शास्त्रो मे बागत कथायों को ऐतिहासिक मानकर इनकी संगति बैठाने मे लगे रहे। इस बात पर विचार ही नहीं किया कि ये साध्यात्मिक साधना परकतों व कर्म सिद्धान्त को प्रतीक भी हो सकती है। उन्होने इस पर भी ध्यान नहीं दिया कि नन्दी सूत्र मे धागमो को शादवत कहा है तथा जिनमणि ने भी धागमो को शाश्वत सत्य कहा है । ऐतिहासिक घटनायें शाश्वत हो नही सकती है, प्राकृतिक नियम ही शाश्वत हो सकते हैं। इस घोर ध्यान न देने के कारण ही संगति नहीं बैठ पाई और अनेक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हुई हैं। पूर्वाचार्यों ने टीकाओं में इन कथाम्रो का भावात्मक निरूपण नही किया । इसका कारण कुछ भी रहा हो किन्तु यह तो निश्चित ही है कि श्वेताम्बर मूल अंग सूत्रो की कथाओ में कम सिद्धान्त व साधना की प्रक्रिया के जीवन को प्रेरणा देने वाले सिद्धान्त सम्मत व बुद्धिग्राह्य अर्थ प्रकट होते है वास्तविकता तो यह है कि कर्म सिद्धान्त सीधे शब्दो मे समझ सकना सरल न था प्रतः उन्हे दृश्यमान जगत के प्राथय से प्रतीकात्मक सांकेतिक भाषा द्वारा प्रस्तुत किया ताकि अन्य साधक भी उन्हें समझ सकें । इस दल मे जैन धर्म के धौर भी घनेक ग्रन्थ रचे हुए है। सिद्धषि का उपमिति भव प्रपंच कथा ऐसा ही एक ग्रंथ है जिसमे उपन्यास के रूप मे भनेक उपाख्यानों द्वारा जैन दर्शन का सुन्दर वर्णन किया गया है। समयसार नाटक भी इसी प्रकार का ग्रन्थ है । पौराणिक कथाए भी इसी मे लिखी गई है। (शेष पृष्ठ २४ पर) --
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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