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जैन दर्शन का अनेकान्तवाद
0डा. रामनन्दन मिष
(१)
कहते हैं। पुद्गल (जड़) तथा जीव (प्रात्मा) अलगप्रत्येक दर्शन के प्रवर्तक की एक विशेष दृष्टि होती अलग और स्वतंत्र तथा निरपेक्ष तथ्व हैं। प्रत्येक परमाणु है जैसी भगवान बुद्ध की मध्यम-मार्ग दृष्टि, शकराचार्य तथा प्रत्येक प्रात्मा के असंख्य पक्ष हैं । भनेकान्तवाद की की पर्वतष्टि, रामानुजाच यं की विशिष्टाद्वैन दृष्टि, मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मक होती है। भिन्नपादि । जनदर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की भी उसके मूल भिन्न दृष्टियों से विचार करने पर मालूम होता है कि में एक विशेष दृष्टि रही है। उसे ही अनेकान्तवाद कहते एक ही वस्तु के अनेक धर्म है। प्रसिद्ध जैन बार्शनिक हैं। जनदर्शन का समस्त पाचार-विचार अनेकान्तवाद हरिभद्र ने लिखा है-"मनन्त धर्मक वस्तु"।' वस्तु पर पाधारित है। इसी से जैनदर्शन भनेकान्तवादी दर्शन अनेकान्तात्मक है। अन्त कहते हैं अश या धर्म को। जैन कहलाता है और अनेकान्तवाद तथा जैन दर्शन शब्द परस्पर दर्शन की दष्टि में प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक या भनेक में पर्यायवाची जैसे हो गये है। वस्तु सत् ही है या असत् धर्मवाली है। प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मों का समूह है। ही है या नित्य ही है, अथवा भनित्य ही है, इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व है। इसे द्रव्य कहते है। की मान्यता को एकान्त कहते है और उसका निराकरण द्रव्य वह है जिसमे गुण और पर्याय हैं। उमा स्वामि ने करके वस्तु को अपेक्षा-भेद से सत्-प्रसत, नित्य-अनित्य
द्रव्य की परिभाषा इस प्रकार की है-'गुण पर्ययवद् पादि मानना अनेकान्त है। अन्य दर्शनो ने किसी को नित्य
द्रव्यम् ।' वस्तु न मर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही और किसी को प्रनित्य माना है। किन्तु जनदर्शन को है. न वह सर्वथा नित्य ही है और न वह सर्वथा अनिस्य मान्यता है कि द्रव्यद्रष्टि से प्रत्येक वस्तु नित्य है योर ही है। किन्त किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो क्सिी पर्याय द्रष्टि से अनित्य है। मल्लिषेण ने लिखा है .... अपेक्षा से प्रसत् है किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी 'मादीपमाव्योमसमस्वभावः स्यादवादमुद्रानतिभदिवस्तु ।
अपेक्षा से अनित्य है । प्रत' सर्वथा सत, सर्वथा असत्, सर्वथा तन्निव्यमेव कमनित्य मन्यदिति त्वदाज्ञा द्विषतांप्रलापा ।'' नित्य, सर्वथा प्रनित्य इत्यादि एकान्तो का त्याग करके वस्तु
अर्थात् दीपक से लेकर प्राकाश तक सभी द्रव्य "क का कथचित् मत् कथचित् असत्, कथचित् नित्य, कथंचित् स्वभाव वाले है । यहबात नहीं है कि प्राकाश नित्य हो मोर अनित्य प्रादि रूप होना अनेकान्त है-.-'सदसन्नित्यानित्यादि दीपक अनित्य । प्रत्येक वस्तु नित्य तथा अनित्य दोनो है। -सर्वथकान्त प्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः ।' इस तरह वह द्रव्यदष्टि से नित्य है तथा पर्याय दृष्टि से अनित्य। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक बस्तु परस्पर मे विरुद्ध कोई भी बात इम स्वभाव का अतिक्रमण नहीं करती प्रतीत होने वाले मापेक्ष अनेक धर्मों का समूह है। क्योंकि सब पर स्याद्वाद या भनेकान्त स्वभाव की छाप लगी हुई है। जिन-माज्ञा के द्वेषी ही ऐसा कहते है कि
भगवान् महावीर एक परम अहिंसावादी महापुरुष प्रमक वस्तु केवल नित्य ही है मोर भमक केवल अनित्य थे । अहिंसा की सर्वांगीण प्रतिष्ठा-मनसा, वाचा तथा
कर्नणा, वस्तु स्वरूप के यथार्थदर्शन के लिए सम्भव न (२)
थी। उन्होंने विश्व के तत्त्वों का साक्षात्कार किया और अनेकान्तवाद जैन दर्शन का एक मौलिक सिद्धान्त बताया कि विश्व का प्रत्येक चेतन और जड़तत्त्व अनन्त है। जैन दर्शन वस्तुवादी तथा सापेक्षवादी अनेकवाद है। धो का समूह है। उसके विराट स्वरूप को साधारण इसे अनेकान्तवाद या यथार्थता को अनेकता का सिद्धान्त मानव पूर्ण रूप में नही जान सकता। वह वस्तु के एक१. मल्लिषेण स्याद्वादमंजरी, श्लोक ५ ।
३. उमश्वामिः तत्वार्थसूत्र, ५/३८ । २. हरिभद्रः षड्दर्शनसमच्चय, पृ० ५५ ।
४. अष्टशती-प्रष्टसहस्त्री के अन्तर्गत, पृ० २८३ ।