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________________ जनवर्शन का मकान्तवाद एक अंश को जानता है। प्रत्येक वस्तु मनन्त धर्मों का पर भाषारित समन्वय दष्टि ही समुचित परिष्कृत दृष्टि प्रखण्ड पिण्ड है । वह नित्य भी है और अनित्य भी। वह है । यथार्थ ज्ञान का परिणाम है। अपनी अनादि मनन्त सन्तान स्थिति को दृष्टि से निर .) है। किन्तु उसकी पर्याय प्रतिक्षण में बदल रही है मन. जैनाचार्य वस्तु की अनेक धर्मकता को सूचित करने वह प्रनित्य भी है । भगवान बुद्ध की तरह भगवान महावीर के लिए 'स्यात् शब्द के प्रयोग की भावश्यकता बतलाते ने प्रात्मा के नित्यत्व-प्रनित्यत्व प्रादि प्रश्नो को अव्याकृत है। शब्दों मे यह सामर्थ्य नहीं है कि वह नस्तु के पूर्ण कह कर बौद्धिक निराशा की सृष्टि नही की बल्कि उन्होने रूप को युगपत् कह सके । बह एक समय में एक ही धर्म सभी सत्त्वो का यथार्थ-स्वरूप बताकर शिष्यो को प्रकाशित को कह सकता है। प्रत. उसी समय वस्तु मे विद्यमान किया। उन्होने बताया कि वस्तु को हम जिस दृष्टिकोण शेष धर्मों को सूचित करने के लिए स्यात्' शब्द का प्रयोग से देख रहे हैं, वस्तु उतनी ही नही है । उममें ऐसे अनन्न । किया जाता है। इस सिद्धान्त को 'स्यावाद' कहते है। दष्टि कोणो से देखे जाने की क्षमता है। उसका विराट जाने की है। उसका विराट 'स्थाद्वाद' में 'स्यात' शब्द अनेकान्त रूप प्रर्थ का वाचक स्वरूप प्रनन्त धर्मात्मक है। हमे जो दष्टिकोण विरोधो अध्यय है । अतएव स्याद्वाट का प्रथं अनेकान्नवाद कहा माल म पड़ता है उसका विषयभूत धर्म भी वस्तु म जाता है । यह म्याद्वाद जैन दर्शन की विशेषता है। इसीसे विद्यमान है। किन्तु वस्तु की सीमा और मर्यादा का समन्तभद्र स्वामी ने कहा है – 'रथाच्छन्दस्तावके न्याय उलघन नही होना चाहिए। यदि हम जड में चेतनत्व । नान्येषामात्मविद्विषाम्'।' अर्थात् स्यात्' शब्द केवल जैन खोजे या चेतन मे जडत्व, तो वह नहीं मिल सकता, क्योकि न्याय में है, अन्य एकान्तबादी दर्शनी में नही है । पनेकान्त प्रत्येक पदार्थ के अपने-अपने निजी धर्म सुनिश्चित है। दशन का ठीक-ठीक प्रतिवादन करने वाली भाषा शंली वस्तु अनन्त धर्मात्मक है न कि सर्वधर्मा-मक । अनन्त धर्मों ___ का स्याद्वाद कहते है । 'स्यावाद' भाषा की वह निर्दोष में चेतन के सम्भव अनन्त धर्म चतन में मिलेंगे पौर प्रणाली है जो वस्तुतत्व का सम्यक प्रतिपादन करती है। प्रचेतनगत मनन्तघम अचेतन मे। चतन के धर्म प्रचेतन 'स्यात्'शब्द प्रत्येक वाक्य के सापेक्ष होने की सूचना देता है। मे नही पाये जा सकते और न अचेतन के धर्म चेतन में। अनेकान्तवाद के दो फलिनवाद है - स्याद्वाद तथा कुछ ऐसे सादृश्यमूलक वस्तुत्व आदि सामान्य धर्म है जो नयवाद । सर्वज्ञ या केवली कवल ज्ञान द्वारा वस्तुमो के चेतन और अवेतन में पाये जा सकते है किन्तु मबको भत्ता अनन्त धर्मों का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करता है। किन्तु प्रलग-मलम है। __ साधारण मनुष्य किसी वस्तु को किसी समय एक ही दृष्टि इस तरह जैन दर्शन के अनुसार वस्तु इतनी विराट से देख सकता है। इसलिए उस समय वह वस्तु का एक है कि अनन्त दष्टि कोणो से देखी और जानी जा सकती ही धर्म जान सकता है। वस्तूमो के इस पाशिक ज्ञान को है । एक विशिष्ट दृष्टि का प्राग्रह कर के दूसरे की दृष्टि जैन दर्शन में 'नय' कहा गया है । सिबसेन ने लिखा हैका तिरस्कार करना वस्तु-स्वरूप के अज्ञान का परिणाम 'एक देश विशिष्टोऽयों नयस्य विषया मत:।" इस पाशिक है। मानसममता के लिए इस प्रकार का वस्तु स्थितिमूलक ज्ञान के प्राचार पर जा परामशं होता है। उसे भो 'नय' अनेकान्त तत्त्वज्ञान आवश्यक है । इस अनेकान्त दर्शन से कहत है। किमो भा विषय के सम्बन्ध मे जो हमारा परामवं विचारो या दष्टि कोणो मे वस्तु स्वरूप के आधार से होता है वह सभी दृष्टियो से सत्य नही होता। उसकी यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक समन्वय दृष्टि प्राप्त होती है। सत्यता उसके 'नय' पर निर्भर करती है। अर्थात् जिस वही समुचित दृष्टि है। सकुचित विरोधयुक्त दृष्टि दृष्टि से किसी विषय का परामर्श होता है, उसकी सस्पता अनुचित दृष्टि है; यह स्वल्पज्ञान का सूचक है । व्यापक उसी दृष्टि पर निर्भर करती है। जैन दर्शन के इस सिवान्त या समन्वय दृष्टि ही समचित दृष्टि है। अनेकान्त दर्शन को नयवाद कहत है । अधे मनुष्यों तथा हाथी की प्रसिव ५. समन्तभद्र स्वयभस्तोत्र, श्लोक १०२। ६. सिद्धसेनः न्यायावतार, श्लोक २६ ।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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