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२४, वर्ष ३३, कि०२
अनेकान्तं कथा इस बात का संकेत करती है कि हम दष्टि-भेद अत: जैन दार्शनिक कहते हैं कि प्रत्येक नय के भूल कर अपने विचारों को सर्वथा सत्य मानने लगते हैं. प्रारम्भ मे 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। स्यात् एक प्रघा हाथी का पर, दूसरा कान, तोसरा पूंछ भोर शब्द से संकेत मिलता है कि उसके साथ के प्रमुख वाक्य चौथा सूंड पकड़ता है। उनमे हाथी के भाकार के की सत्यता प्रसंग-विशेष पर ही निर्भर करती है। अन्य सम्बन्ध में पूरा मत भेद हो जाता है । प्रत्येक अघा सोचता प्रसंगो मे वह मिथ्या भी हो सकता है। किसी घड़े को देख है कि उसी का ज्ञान ठीक है और दूसरो का गलत । किन्तु कर यदि हम कहे-'घड़ा है'-तो इससे अनेक प्रकार का जैसे-ही उन्हे यह बताया जाता है कि प्रत्येक ने हाथी का भ्रान्त ज्ञान हो सकता है। लेकिन यदि हम कहें-'स्थात् एक-एक अग ही स्पर्श किया है, उनका मत भेद दूर हो पड़ा है'--तो इससे यह ज्ञात होगा कि घड़े का मस्तित्व जाता है। दार्शनिको के बीच भी मतभेद इसीलिए होता काल-विशेष, स्थान-विशेष तथा गुण-विशेष के अनुसार है। है। कि वे किसी विषय को भिन्न-भिन्न दृष्टियो से स्यात् शब्द से यह भ्रम नहीं होगा कि घड़ा नित्य है, तथा मौकते है। इसी कारण भिन्न-भिन्न दर्शनो मे संसार के सर्वव्यापी है । साथ-साथ हमे यह भी संकेत मिलेगा कि भिन्न-भिन्न वर्णन पाये जाते है । जिस तरह प्रत्येक अधे का किसी विशेष रंग तथा रूप का धडा किसी विशेष काल हाथी सम्बन्धी ज्ञान उसके अपने ढग से बिलकुल ठीक है और स्थान में है। जैन दर्शन का यह सिद्धान्त स्याद्वाद उसी तरह भिन्न-भिन्न दार्शनिक मत अपनी-पपनी दृष्टि कहलाता है। से सत्य हो सकते है। दृष्टिसाम्य होने पर मत भेद की उपर्यक विवेचन से स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद सम्भावना नही रह जाती है।
ममुचित दृष्टि का परिष्कृत स्वरूप है। COM
(पृष्ठ २१ का शेषाश) इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान श्री वासुदेव शरण का कथन प्रागमो की कथानो पर विचार करें और वास्तविक व इस प्रकार है - 'विश्व रचना के मूलभूत नियम ही वेदो बुद्धिग्राह्य अर्थ प्रकट करने का प्रयत्न करे जिससे नई पीढ़ी की प्रतीकात्मक भाषा में कहे गये है। इन्द्र और वृत्त के लोगों को सन्तोष हो भौर उनका मागम पर विश्वास किसी इतिहास विशेष के प्राणी नही है वे तो विश्व की हो। यदि ऐसा नहीं किया गया तो वैज्ञानिक युग मे प्राणमयी भोर भूतमयी रचना के दृष्टान्त ही है। प्रागम सूत्र प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण के विरोधी कपोलकल्पित
विद्वानो से निवेदन है कि शब्दो की व्युत्पत्ति और ग्रन्थ मात्र रह जायेगे और लोग उनमे वणित अपूर्व सत्य नियुक्तियो पर ध्यान रखते हुए इस विचारधारा से भी ज्ञान से वचित रह जायेंगे।
[000 (पृष्ठ १८ का शेषांश)
तिलोयपण्णत्ती के अनुसार विजयार्द्ध प्रदेश की विशेष कृत सर्वाटविकराण्यस्य' उल्लेख से होता है, जिसके माधार पैदावार यवनाल (जवार) बल्ल, तूबर (परहर), तिल पर डा. फ्लीट ने मध्य भारत को (जिसमें विन्ध्य प्रदेश जौ, गेहू पोर उड़द है। भी सम्मिलित है), पाटविक राज्य माना है। पार्यावर्त यथा-जमणाल बल्ल तुवरी तिल जव घुम्ममास पहुदीहि । एवं दक्षिण विजय के बाद दोनों के बीच मावागमन की सम्वेहि सुधणेहिं पूराइ सोहति भूमीहिं ॥ ४॥१३३ सुविधा के लिए समुद्रगुप्त (विक्रम की पूर्वी मदी का वर्तमान विन्ध्य प्रदेश की भी मुख्य पैदावार उक्त अनाजों प्रारम्भ) ने प्राविक राज्यों को जीता था।
वर्तमान विध्य प्रदेश का प्रपर नाम डाहल" या उक्त भौगोलिक नथ्यो के माधार पर यह प्रतीत होता माल भी मिलता है । परिव्राजक हस्ती के ताम्रपत्र में है कि वर्तमान विन्ध्य प्रदेश तिलोयपण्णत्तो काल में रमाल राज्य को १८ माविक राज्यों में सम्मिलित माना विजयाद्ध के नाम से भी प्रसिद्ध था। गया है।"
महाजन टोली नं० २, पारा (बिहार) २१. अभिलेखमाला-[समुद्रगुप्त का प्रयागस्तम्भलेख] Chandhury) P. 252. पृ० ६६.
२३. अभिलेखमाला पृ० ८५. २२. Political History of Northern India (G.C. २४. बही.