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________________ हुबड जैन जाति की उत्पत्ति एवं प्राचीन जन गणना 0 श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर जैनधर्म मूलत: जातिवाद को नहीं मानता। भ० श्वे. थे, वे दिगम्बर बन गये मोर दिगम्बर से श्वेताम्बर महावीर के समय सभी वर्ण और जाति वाले धर्मानुयायी बन गये। इस तरह पल्लीवाल प्रादि कई जातियों के थे, यह प्राचीन जैन प्रागमों से भलीभांति विदित है। योग दोनों सम्प्रदायों के अनुयायी मब भी पाए जाते है। पर मागे चलकर एक घर मे परिवार के लोग कई धमों जैन जातियों मे हुबड जाति भी एक है। जो दोनों के मानने वाले होने से खान-पान, व्यवहार में बड़ी अड़- सम्प्रदायो के अनुयायी है। इस जाति को उत्पत्ति कब, चनें पड़ने लगीं। घर का कोई व्यक्ति मांसाहारी है तो कहा, किसके द्वारा हई। इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन शाकाहारी के साथ निभाव नही हो सकता। एक वैदिक प्रमाण नही मिला । पर मुझ स. २००३ मे खतरगच्छ धर्म को मानता है, दूसरा बौद्ध और तीसरा जैन धर्म को। के जिन रत्नसूरि जी के प्रतापगढ में लिखा हुआ एक पत्र तो उनके देवगुरू पौर धर्म तीनो की मान्यताप्रो में अन्तर मिला। जो उन्होन हुबड पुराण नामक किसी ग्रन्थ का होने से परस्पर मे विवाद-वैमनस्य हए बिना नही रहेगा। आवश्यक अश नकल कर लिया भेजा था। हुंबड पुराण अत. जैनाचार्यों ने युग को माग व दिव्य दोघं दष्टि से कब किमने लिखा पता नही। अत: उनकी खोज करके जैन धर्म को मानने वाले सब जैनी है, स्वधर्मी भाई है, उममे और क्या-क्या बात लिखी हुई है ? उन्हें भी प्रकाश उनके खान-पान और रोटी-बेटी के व्यवहार में कोई भेद- मे लाना चाहिए। प्राप्त पत्र के अनुसार इस जाति की भाव या अलगाव नहो रहना चाहिए । चाहे वे किसी वर्ण उत्पत्ति स० ८२० में घनेश्वर सूरि के प्रतिबोध से हुई या जाति के हो। इस तरह का जाति और धार्मिक सग. और स० ११२१ मे जिनवल्लभगणि ने पुनः प्रतिबोध ठन बनाया। इससे बहुत बड़ा लाभ हुमा। याचार- दिया है । लिखित पत्र की नकल दम प्रकार है :--- विचार मे एक मूत्रता प्राई, भाई चारे का भाव और "हंबड वणोक जाति उत्पत्ति संक्षेपे लिख्यते" व्यवहार पुष्ट हुप्रा । परिवार में सभी एक धर्म के मानन "पूर्व कोई ग्रामे चैत्यावागो संघ धनेश्वरने मूरिपद वाले होने से बहुत सी अड़चनें मिट गयी। गुरू पासे थी। पपाव्यो, ते स्वतत्र रई, गुरूविमुखोया। बहुत से जातियो के नाम स्थानो के नाम से प्रसिद्ध प्रावर गुरू एनिज मघ कबजे करी धनेश्वर प्रणाबार हुए मुख्य प्राजीविका खेती और व्यापारी हो जाने से कयों, स्वच्छ दपणे विचरणा लागा। इम ममे ८२० वैश्य वर्ण वाले बन । चाहे पहले वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र भिन्नमालवासी क्षेत्री दो भाई परस्पर वैमनस्य थी लड़वा कोई भी रहे हों। एक स्थान वाले जब व्यापार प्रादि के लागा। प्रतापसिंह १ भाणमिह नाम रखापतना न भोटो लिए दूसरे स्थानो मे गये, तो उन्हे उनके मूल निवास हतो, कब्जा ने घड़ी मूतपतसिंह हार्यो, निज लस्कर लई स्थान के निवासी के रूप मे उन स्थानों के नाम से बतलाने पाटण पोतो, भाणसिहनी, पाराचेल मारीए मपतसिह नो व पहचानने लगे। जैसे प्रोसियां से जो व्यक्ति अन्यत्र गये, लस्कर पीड़ित करयो । ए समय वि० ८२० धनेश्वर मूरि वे भोसवाल के नाम से प्रसिद्ध हो गये। खण्डेल के मूल पारण मा भूपतसिंह पासे उपाश्रय माग्यु । भपतसिंह निज निवासी खण्डेलवाल, पाली के पल्लीवाल, प्रग्रोवा से कामे प्रापि, लस्कर मारी नो उपाश्रय दूर करवा घनेम्बर अग्रवाल, इस तरह ८४ जातियां प्रसिद्धि मे प्रायो। ते जाताया स्वार्थहा भणी, शेजा उपर ना सूरज-कुण्ड नो जैनधर्म के दो प्रधान सम्प्रदाय है, श्वे० पोर जल तथा रायण ना पता थी मागे निवारी २७ हजार दिगम्बर जिम सम्प्रदाय के प्राचार्यों और विद्वानो ने जहा जाप करी ते मभवाली थावक कर्या । क्षेत्री ब्राह्मण मली के क्षेत्रियो प्रादि को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया, वे उम १८ हजार जैन धर्म मा दाखिल करघा। भूपतसिंह मोर सम्प्रदाय के अनुयायी हो गये। संयोगवश दूसरे सम्प्रदाय ये हमारी जाति स्यापो, त्यारे धनेश्वरे निज मान रहो वाले के सग या प्रभाव से कई जातियों वाले जो मूल हंबडो, हुबड जाति स्यापि । गुरू ने खबरि पड़ो न सघ
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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