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भगवान बाहुबली को शल्प नहीं यो
राज्य शतबली को दिया पौर दीक्षा ले लो। पब एक दीक्षा ले पद प्राप्त किया एवं सुन्दरी ने भी दीक्षा ले लो। वर्ष का योग समाप्त हुमा तब वे अपने पिता बज्रायुध के इसके बाद चक्रवती ने घर पाकर चकरन की पूजा पास जा पहुंचे। मनंतर पिता-पुत्र दोनों ने चिरकाल तक करके दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया जहां उन्हे साठ तपस्या की। पुनः भैभार पर्वत पर पहुच कर पन्त मे हजार वर्ष लग गये। तदनतर वापिस पाने पर बाहुबली सन्यास विधि से मरण कर प्रहमिन्द्र हो गये।
के साथ युद्ध हुपा है। यह प्रकरण भगवान् शातिनाथ के पाचवें भव पूर्व का प्रतः भगवान बाह ३लो का प्रादर्श जोवन महापुराण है। यह घटना पूर्व विदेह क्षेत्र की है। इससे यह स्पष्ट के प्राधार से लेना चाहिये । चकि यह पंधराज ऋषिप्रणीत हो जाता है कि विदेहादि क्षेत्र मे ऐसे-ऐसे महामुनि एक होने से "प्रार्ष प्रथ" माना जाता है। पत. वह समस्त एक वर्ष का योग लेकर ध्यान किया करते थे।
विवादो से रहिन पूर्णतया प्रमाणिक है इसमे किसी को भगवान बाहुबली चतुर्थ काल के प्रादि में क्या तृतीय
रचमात्र भी सदेह नही होना चाहिए। 000 काल के अन्त में जन्मे थे । और ध्यान में लोन हुए थे
(पृ० २६ का शेषाष) तथा मुक्ति भी तृतीय काल के अन्त में प्राप्त की थी। प्रन: उनमें एक वर्ष के ध्यान की योग्यता होना कोई बड़ी गहकर फिर स्थापित नहीं की गई है। अत: इसका पत्थर बात नही है। पुनः 'शल्य थी इसलिए केवलज्ञान नही पर्वत का पंग होने में सचित है। हपा" यह कथन सगत नही प्रतीत होता है।
को एक हजार वर्ष हो गये है प्रतः इसका सहस्रान्ति रविषणाचार्य ने भी बाहुबली के शल्य का वर्णन नही महोत्सव मनाया जा रहा है । २२ फरवरी सन् १९८१ किया है। यथा-"उन्होने उस समय सकल भोगो को को इसका १००८ विशाल कल शो मे महामस्तकाभिषेक स्याग दिया पोर निर्वस्त्र दिगम्बर मुनि हो गये तथा एक सम्पन्न होगा जिसमे ८.१० लाख मनुष्य इकट्ठे होगे। वर्ष तक मेरु पर्वत के समान निष्प्रकप खड़े रहकर प्रतिमा- वैदिक कम्भ पर्व की तरह ही यह जन कृम्मपर्व होगा। योग धारण कर लिया। उनके पास अनेक वामियों लग जैनो मे तोयंकर मूर्तिया ही बनाने का प्रचलन है। गई जिनके बिलो से निकले हुए बड़े-बड़े सांपों पौर श्यामा बाहबली स्वयं कोई नोर्थ कर नही थे किन्तु तीर्थकर पुत्र प्रादि को हरी-हरी लतामो ने उन्हे वेष्टित कर लिया, व कामदेव होने से साथ हो एक वर्ष तक घोर तपस्या कर इस दशा में उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
केवली बन मुक्ति प्राप्त करने के कारण उनकी मूर्तियां प्रतएव भगवान् बाहुबली के शल्य नही थी। बनाई गई है। श्रवणबेलगोला, कारकल, वेणर प्रादि भनेक
कोई कहन कि भरन के साथ ब्राह्मी-मन्दरी बनो स्थानो पर उनकी विशाल और प्राचीन मूतियां पाई ने भी जाकर उन्हे मंबोधा तव उनको शल्य दूर हुई।
जाती है। यह वशन भो नितान्त प्रसगत है। क्योकि भगवान
इस लेम्ब द्वारा उन विश्ववच गोम्मटेश्वर भगवान वषभदेव को केवलज्ञान होने के बाद पुरिमनाल नगर के बाहबलि के चरणारविन्दो में सहस्त्रशः प्रणामांजलि प्रस्तुत मगर के स्वामी भरत के छोटे भाई वृषभसेन ने भगवान से दीक्षा ले ली और प्रथम गण घर हो गये। ब्राह्मी ने भी
केकड़ी (प्रजमेर-राजस्थान) १. अब बच युधाधोशा नप्तृकंवल्यदर्शनात् ।
योगावमाने म प्रापत् बचायुध मुनीश्वरम् । लब्धवोधि महस्रायुधय राज्य प्रदाय तत् ।।
ताव भी मुचिरं कृत्वा प्रवज्या यह दुःमहा। दीक्षा क्षेमकगल्यान तीथकर्तुगाम्नगः ।
उत्तरपुराण, ६३.१३१-१४० । प्राप्य: सिद्धिगिरी वषनिमायोगमाम्धिनः ।।
२. संत्यज्य म तना भोगान् भूत्वा निर्वस्त्रभूषणः । तस्य पादौ समालम्ब्य बाल्मोक बहवतंन ।
वर्ष प्रतिमया तस्थो मेरुवनिः प्रकम्पकः । वतिन त व्रतस्योऽपि मार्दव वा समीप्सवः ।।
वल्मीक विवरोधातैरत्युप्रे स महोरगः। गाढं रुदा समासे दुर कण्ठमभितम्तनुम् ।
श्यामादीनाचवल्लीभिःविष्टि प्राप केबलम्॥ किंचित्कारणमुद्दिश्य बजायुधसुतोऽपि तत् ।
पपपुराण, ४.७५-७६ सयम सम्यगादाय मनोन्द्रात् पिहितानगात् ।
३. महापुराण, पर्व-२४
करता हूँ।