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बाहुबलि-स्तवन
0 श्री भगवत जैन
जिस वीरने हिंसा की हुकूमत को मिटाया। थी ताब, यह किसकी कि जो चक्री से आ लडे? जिस वोरके अवतार ने पाखण्ड नशाया ॥ यों आके मिले आप ही राजा बड़े-बड़े ॥ जिस वीरने सोती हुई दुनिया को जगाया। फिर हो गया छह-खण्ड में भरतेश का शासन । मानव को मानवीयता का पाठ पढ़ाया ॥ पुजने लगा अमरों से नरोत्तम का सिंहासन ॥ उस वीर महावीर के कदमों में झुका सर । जय बोलियेगा एक बार प्रेम से पियवर! था सबसे बड़ा पद जो हकमत का वो पाया।
था कौन बचा, जिसने नहीं सिर था झुकाया ? कहता है कहानी मैं सुनन्दा के नन्द की। दल देव-व-दानव का जिसे पूजने आया। जिसने न कभी दिल में गुलामी पसन्द की । फिरती थी छहों खण्ड मे भरतेश की छाया ।। नौबत भी आई भाई से भाई के द्वन्द्व की। यह सत्य हर तरह है कि मानव महान् था। लेकिन न मोड़ा मुह, न जुबां अपनी बन्द की॥ गो, था नहीं परमात्मा; पर, पुण्यवान् था । आजादी छोड़ जीना जिसे नागवार था। बेशक स्वतन्त्रता से महब्बत थी, प्यार था। जब लाटा राजधाना का चक्राश
जब लौटा राजधानी को चक्रीश का दल-बल ।
जिस देश में आया कि वही पड़ गई हल-चल ।। थे 'बाहुबलि' छोटे, 'भरतराज बड़े थे।
ले-लेके आए भेट-जवाहरात, फूल-फल । छह-खण्ड के वैभव सभी पैरों में पड़े थे। नरनाथ लगे पूछने-भरतेश को कुशल ।। थे चक्रवति, देवता सेवा में खड़े थे। स्वागत किया, सत्कार किया सबने मोद भर । लेकिन थे वे भाई कि जो भाई से लड़े थे। था गूजता भरतेश की जयघोष से अम्बर।। भगवान ऋषभदेव के वे नौनिहाल थे। सानी न था दोनों ही अनुज बे-मिसाल थे॥ था कितना विभव साथ में, कितना था सैन्य-दल ।
कैसे करूं बयान, नहीं लेखनी में बल ।। भगवान तो, दे राज्य, तपोवन को सिधारे। हां इतना इशारा ही मगर काफी है केवल । करने थे उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर्म के आरे । सब कुछ था महेया, जिसे कर सकता पण्य-फल ।। रहने लगे सुख-चैन से दोनों ही दुलारे। सेवक करोड़ों साथ थे, लाखों थे ताजवर । थे अपने-अपने राज्य में सन्तुष्ट बिचारे । __ अगणित थे अस्त्र-शस्त्र; देख थरहरे कायर ।। इतने में उठी क्रान्ति की एक आग विषली। जो देखते ही देखते ब्रह्माण्ड में फैली॥ उत्सव थे राजधानी के हर शख्स के घर में।
खुशियां मनाई जा रही थी खूब नगर में ॥ करने के लिए दिग्विजय भरतेश चल पड़े। थे आ रहे चक्रीश, चक्ररत्न ले कर में। कदमों में गिरे शत्रु, नहीं रह सके खड़े॥ चर्चाएँ दिग्विजय की थी घर-घर में डगर में ॥