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१२२, वर्ष ३३, किरण ४
अनेकान्त
क्षशिला की गौरवगाथा के गाने में मन्य कोई कवि स्वामी भरत के दूत से सभी की.ल पूछी। दूत ने भारत तक्षशिलाधिप बारबलि के बड़े भाई चक्रवर्ती भरत के की प्रजा, विशाल साम्राज्य मादि की चर्चा करते हुए चरित्र को सभवतः अपने नायक की तुलना मे हीन दिखाने चक्रवर्ती के मन का शुल इस प्रकार सुनाया-(सारे नप का प्रयास कर सकता था क्योंकि बाहुबलि का उनसे युद्ध उन्हे सिर नवा कर भेंट देकर अधीनता स्वीकार चुके हुमा था किंतु भट्ट जी ने ऐसा नहीं किया। भरत को किन्तु...) गुरुता को उन्होंने निम्न शब्दों में व्यक्त किया है
वा समान कठोर माप हो, भरत पयोध्या के राजा थे,
केवल निकट न पाये। मुकुट मोलि पृथ्वी के।
भ्रातभाव की रक्षा करने, मनोनीत सम्पन्न प्रजा के,
कोई भेंट न लाये। गुरु थे ज्ञान पनी के।
है अवज्ञा यह नप, इस प्रकार भरत का यह चित्रण जैन परंपरा से मेल
वर्षन अच्छा है। खाता है जिसके अनुसार चक्रवर्ती भरत की प्रजा सभी
दूत ने बाहुबलि से यह भी निवेदन किया कि उन्हें प्रकार से सुखी थी और वे स्वयं ज्ञान और तप की बड़े भाई का आदर करने की दृष्टि से भी प्रयोध्या बल मूर्ति थे।
कर चक्रवर्ती की प्रवीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए । द्वितीय स्तर के प्रारम्भ में भट्ट जी ने अपनी काव्यमय दूत को चतुराई की प्रशंसा करते हुए बाहुबलि ने कहा कि भाषा में बाहुबलि के सुशासन का चित्र खींचते हुए लिखा "बड़े भाई उनके लिए पिता के समान पूज्य है" किन्तु है कि उनके राज्य में "कुत्सित पौर कुटिल" जैसे शब्द कौटिल्य शास्त्र के सब रहस्य सीखे हुए अपने बड़े भाई के केवल शब्दकोशों में ही पाए जातेथे । बाहुबलि के सभी विषय मे शंका व्यक्त करते हर कहा कि मेरे बड़े भाई ने प्रजाजन संपन्न भौर साक्षर थे। उनके शासनकाल में अन्य राज्यों का तो सर्वस्व हरण कर लिया है फिर मैं कैसे तक्षशिला इद्र की प्रपर या दूसरी नगरी ही लगती थी। यह मान लं कि मेरे प्रति उनका प्रेम खारा है । अंतर्यापी ऐसी नगरी मे
ऋषभ-स्वामी हमारे पिता हैं यह तो ठीक है मगर कहीं पाप का नाम नहीं था,
(भरत)कही न भेव बचन में।
दे स्वामी मैं अनुचर यह तो, कहीं न कटनीति का परिचय,
वाम्भिक नीति विषम है। कहीं न ईर्ष्या मन में।
यदि मैं बच समान पुरुष, पोर इस नगरी का शासक शौर्य-वीर्य की मूर्ति होने
हूं यह स्वभाव यदि मेरा। के साथ-ही-साथ रूप-राशि का भी धनी था। प्रजा का
तो अभेद्य प्रविजेय रहंगा, रजन करने में व्यस्त होने के साथ-ही-साथ यह शासक
व्यर्थ विवाद घनेरा।। शास्त्र-पाठ और चिन्तन-मनन में रत रहता था।
बाहुबलि का यह उत्तर सुन कर दूत तिलमिला कर इतने लोकप्रिय राजा के जीवन मे उस समय क्षुब्धता
चला गया। भरत ने जब अपने वीर-वृत्ति, उद्धृत बल उत्पन्न हुई जब चक्रवर्ती भरत के दूत ने अयोध्यापति का
छोटे भाई की कुशल और उत्तर पूछा, तो दूत ने उन्हें स देश उन्हें सुनाया।
बताया कि साम, दाम मादि उसकी सभी नीतियां विफल दूत के प्रागमन को कवि ने मानों शर का पागमन हो गई क्योंकि "उन्हें बांधना सिंह को बांधना" और वे तो बताते हुए नप बाहुबलि की कल्पना भी सदेह मनु के रूप केवल "संग्राम साध्य है। भरत ने स्वीकार किया कि मे की है। उधर बाहुबलि ने भी "नय की परंपरा से" उनका छोटा भाई स्वभाव से ही कड़ा है। मगर मत्री न "सुवेग नामक" कामादिक षट शत्र विजेता, छह खंडों के यह सलाह दी कि यदि वे चक्रवर्ती की अवज्ञा करने वाले
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