________________
६६, वर्ष १३, किरण ४
प्रनेकान्त
प्रकार का कहा गया है -सयक्त्वाचरण चारित्र और जाता है। जहाँ सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग है, वहां सभी सयमाचरण चारित्र । प्रयम मर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट जिनागम वस्त्रों का भी त्याग है। कहा भी है-सम्पूर्ण वस्त्रो का में प्रतिपादित तस्वार्थ के स्वरूप को यथार्थ जानकर श्रद्धान त्याग, अचेलकता या नग्नता, केशलोंच करना, शरीरादि करना तथा शकादि प्रतिचार मल-दोष रहित निर्मलता से ममत्व छोड़ना या कायोत्सर्ग करना और मयूरपिच्छिका महित नि:शंकित प्रादि अष्टाग गुणो का प्रकट होना घारण करना । यह चार प्रकार का प्रोत्सगिक लिंग है। सम्यक्रवाचरण चारित्र है। द्वितीय महावादि से युक्त श्वेताम्बरो के मान्य प्रागम ग्रन्थ में भी साध के पठाईस घाईम मूल गुणों का संयमाचरण है'। परमार्थ मे तो मूलगुणों में से कई बाते समान मिलती है । 'स्थानांग सूत्र श्रमण के निर्विकल्प मामायिकसयम रूप एक ही प्रकार में उल्लेख है-'प्रार्यों !'.. मैंने पाच महाव्रतात्मक, सप्रतिकाभेद चारित्र होता है। किन्तु उसमे विकल्प या भेद- क्रमण और प्रचेल धर्म का निरूपण किया है। पार्यो,
प होने में श्रमणों के मूलगुण कहे जाते हैं। दिगम्बर मैंने नग्नभावत्व, मण्डभाव, अस्नान, दन्तप्रक्षालन-वर्जन, परम्परा के अनुसार मभी काल के तीर्थकरो के शासन मे छत्र-वर्जन, पादुका-वर्जन, भूमि-शय्या, केशलोच पादि का मयिक संयम का ही उपदेश दिया जाता रहता है। निरूपण किया है। श्वेताम्बर-परम्परा मे साधु के मल गुणो किन्त अन्तिम तीर्थकर महावीर तथा प्रादि तीर्थंकर ऋषभ- को संख्या सामान्यत: छह मानी गई है। जिन भद्रगणि क्षमादेव ने छेदोष स्थापना का उपदेश दिया था। इसका कारण श्रमणने मूल गुणों की संख्या पांच और छह दोनो का उल्लेख मख्य रूप से बोर मिथ्यात्वी जीवो का होना कहा जाता है। किया है सम्यक्त्व से महित पांच महाव्रतों को उन्होने पांच पादि तीर्थ मे लोग सरल थे पोर अन्तिम मे कुटिल बुद्धि मूलगुण कहा है। इन पांच महाव्रतों के साथ रात्रिभोजनवाले। प्रठाईस मूलगुण इस प्रकार कहे गए है' : पांच विरमण मिला कर मूलगुणों की संख्या छह कही जाती है। महाव्रत, पांच समिति, पाँच इन्द्रियो का निरोध, छह वास्तव में जैन माधु-सन्तों का स्वरूप दिगम्बर मुद्रा मावश्यक केशलोंच, नग्नत्व प्रस्नान, भूमिशयन, दन्तधावन- में विराजित वीतरागता में ही लक्षित होता है प्रतएव वर्जन, खडे होकर भोजन और एक बार प्राहार। सभी भारतीय सम्प्रदायो मे समानान्तर रूप से दिगम्बरत्व श्वेताम्बर परम्परा में भी पांच महाव्रतो को अनिवार्य रूप का महत्व किसी-न किसी रूप में स्वीकार किया गया है। से माना गया है। पाच महावलो और पांच समितियों के योगियो में परमहम साधुनो का स्थान सर्वश्रेष्ठ समझा बिना कोई जैनमुनि नही हो सकता । 'स्थानांगसूत्र' मे जाता है। प्राजीवक श्रमण नग्न रूप में ही विहार करते दश प्रकार की समाधियो मे पांच महावत तथा पांच थे। इसी प्रकार हिन्दुको के कापालिक साघु मागाही होते समिति का उल्लेख किया गया है।
हैं जो प्राज भी विद्यमान है । यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन पाच मह'वनों में सब प्रकार के परिग्रह का त्याग हो मानी जाती है। भारतीय सन्तों को परम्परा वैदिक और
१. जिणणाणदिट्टिसुद्ध पढम सम्मतचरणचारित्त । विदियं संजमचरण जिणणासदेसियं त पि॥
चारित्तपाहा, गा०५ २. बावीसं तित्यय गं सामाइयस जम उबदिसंति । छेदुवावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य ।।
मूलाचार, गा० ५३३ ३. वसमिदिदियरोषो लोवावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमवतघावणं ठिदिभोयणमेगमत्त ॥ एदे खलु मूनगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता ।।
प्रवचनसार, गा० २०८-२०६
४. ठाणांगसुत्त, स्था० १०, सूत्र ८ ५. मच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसोह्र लिंगप्पो चम्विहो होदि उस्सग्गे।।
भगवतो माराधना, गा००२ ६. मनि नथमल: उत्तराध्ययन-एक समीक्षात्मक अध्ययन,
कलकत्ता, १९६८, पृ० १२८ ७. विशेषावश्यक भाष्य, गा. १८२९ ८. सम्मत्त समेयाई महब्वयाणुप्वयाई मूलगुणा।
बही, गा० १२४४