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जैन - परम्परा में सन्त और उनकी साधना-पद्धति
जैन सन्त: लक्षण तथा स्वरूप
सामान्यतः भारतीय सभ्त साधु, मुनि, तपस्वी या यतिके नाम से प्रभिहित किए जाते हैं । समय की गतिशील धारा मे साधु-सन्तों के इतने नाम प्रचलित रहे है कि उन सबको गिनना इस छोटे से निबन्ध मे सम्भव नहीं है । किन्तु यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जैन-परम्परा मे साधु, मुनि तथा श्रमण शब्द विशेष रूप से प्रचलित रहे है । साधु चारित्र वाले सन्तो के नाम है।' श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु वीतराग, घनगार, भदन्त, दन्त या यति । बौद्ध परम्परा के श्रमण, क्षपणक तथा भिक्षु शब्दों का प्रयोग भी जैनवाङ्मय मे जैन साधुग्रो के लिए दृष्टिगत होता है। हमारी धारणा यह है कि साधु तथा श्रमण शब्द प्रत्यन्त प्राचीन है । शौरसेनी भागम ग्रन्थों में तथा नमस्कार मन्त्र मे 'साहू' शब्द का ही प्रयोग मिलना है । परवर्ती काल मे जैन भागम ग्रन्थो में तथा प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रादि की रचनाओंों में साहू तथा सपण दोनों शब्दों के प्रयोग भली-भांति लक्षित होते है ।
साधु का पथ है? - श्रनन्त ज्ञानादि स्वरूप शुद्धात्म की साधना करने वाला | जो प्रनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख भोर क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों का साधक है, वह साधु कहा जाता है। 'सन्त' शब्द से भी यही भाव ध्वनित होता है क्योंकि सत्, चित् भौर प्रानन्द को उपलब्ध होने वाला सन्त कहलाता है। इसी प्रकार जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी के ढेने, स्वर्ण और जीवन-मरण के प्रति सदा समताका भाव बना रहता है, वह श्रमण है। दूसरे शब्दों में जिसके राग-द्वेष १. समणोति संजदोत्ति यरिमिमुणिसाधुत्ति बोदरागोत्ति । णामणि सुविहिदाण अणगार भदंत दत्तोत्ति || मूलाचार, गा० ८८६ २. "मनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः ।” - घवला टीका, १, १, १
[] डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच
का द्वैत प्रकट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दृष्टिज्ञप्तिस्वभाव शुद्धात्म-तत्व का अनुभव करता है, वहीं सच्चा साधु किवा सन्त है । इस प्रकार धर्मपरिणत स्वरूपवाला श्रात्मा शुद्धोपयोग में लीन होने के कारण सच्चा सुख प्रथवा मोक्ष सुख प्राप्त करता है । साधु-सन्तों की साधना
यही एकमात्र लक्ष्य होता है। जो शुद्धोपयोगी भ्रमण होते हैं, वे राग-द्वेषादि से रहित धर्म-परिणत स्वरूप शुद्ध साध्य को उपलब्ध करने वाले होते हैं, उन्हें ही उत्तम मुनि कहते है । किन्तु प्रारम्भिक भूमिका में उनके निकटवर्ती शुभोपयोगी साधु भी गौण रूप से श्रमण कहे जाते हैं। वास्तव में परमजिनकी प्राराधना करने में सभी जन सन्त-साधु स्व शुद्धात्मा के ही प्राराषक होते हैं क्योंकि निजात्मा की प्राराधना करके ही वे कर्म-शत्रुओंों का विनाश करते है ।
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किन्तु उनमें मूल मूल गुण के बिना
साधु के अनेक गुण कहे गए गुणों का होना अत्यन्त अनिवार्य है। कोई जनसाधु नहीं हो सकता । मूलगुण ही वे बाहरी लक्षण है जिनके प्राधार पर जंन सन्त को परीक्षा की जाती है । यथार्थ में निर्विकल्पता मे स्थित रहने वाले साम्यदशा को प्राप्त साधु ही उत्तम कहे जाते हैं। परन्तु अधिक समय तक कोई भी श्रमण सन्त निर्विकल्प दशा में स्थित नही रह सकता । प्रतएव सम्यक् रूप से व्यवहार चारित्र का पालन करते हुए अविछिन्न रूप से सामायिक में मारूढ़ होते हैं | चारित्र का उद्देश्य मूल में समताभाव की उपासना है। क्या दिगम्बर मोर क्या श्वेताम्बर दोनों परम्पराम्रों में मुनियों के चारित्र को महत्व दिया गया है । चारित्र दो ३. समन्वग्गो समसुहदुक्खो पसंसनिदसमो । समलोकं बणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ प्रवचनसार, गा० २४१