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जन-परम्परा में सन्त और उसकी साधना-पडति
श्रमण इन दो रूपों में प्रत्यन्त प्राचीन काल से प्रवाहित कि भिक्षणों के पांच महावत या यम सर्वमान्य थे। रही है। इसे ही हम दूसरे शब्दों में ऋषि-परम्परा तथा जाबालोपनिषद' का यह वर्णन भी ध्यान देने योग्य है कि मुनि परम्परा कह सकते हैं। मुनि-परम्परा अध्यातिक निग्रंन्य, निष्परिग्रही, नग्न-दिगम्बर साधु ब्रह्ममार्ग में रही है जिसका सभी प्रकार से पाहत संस्कृति से सम्बन्ध सलग्न है। उपनिषद-माहित्य में तुरीयातीत' अर्थात् सर्व. रहा है। ऋषि-परम्परा वेदों को प्रमाण मानने वाली त्यागी संन्यासियों का प्रो वर्णन किया गया है, उनमे पूर्णतः बाहंत रही है। श्रमण मुनि वस्तु-स्वरूप के विज्ञानी परमहंम माधु की भांति मानो उतनवर्षा लिए हुए तथा प्रात्म-धर्म के उपदेष्टा रहे है। प्रात्म-धर्म की साधना प्रात्म-ज्ञान-पान में लीन दिगम्बर जैन साधु कहे जाते है। के बिना कोई सच्चा श्रमण नही हो सकता। श्रमण- सन्यासी को भी अपने शुद्धरूप मे दिगम्बर बताया गया है। परम्परा के कारण ब्राह्मण धर्म में वानरामा योर संपाम टीकाकारों ने 'प्रया' का अर्थ दिगम्बर किया है। को प्रश्रय मिला। जैनधर्म में प्रारम्भ से हो वानप्रस्थ के भर्तृहरि ने दिगम्बर मुद्रा का महत्त्व बताते हुए यह रूप में ऐलक, क्षल्लक (लंगोटी धारण करने वाले) साधकों कामना की थी कि मैं इस अवस्था को कर प्राप्त होऊंगा? का वर्ग दिगम्बर परम्परा मे प्रचलित रहा है। संन्यासी के क्योंकि दिगम्बरत्व के बिना कर्म-जजालों से मुक्ति प्राप्त रूप में पूर्ण नग्न साधु ही मान्य रहे है।
करना सम्भव नहीं है। केवल जैन साहित्य में ही नहीं, वेद उपनिषद्, साधना-पद्धति पुगणादि साहित्य में भी श्रमण सस्कृति के पुरस्कर्ता यथार्थ मे स्वभाव की पाराधना को साधना कहते हैं। 'श्रमण' का उल्लेख तपस्वी के रूप में परिलक्षित होता है। स्वभाव की प्राराधना के समय समस्त प्रलोकिक कर्म तथा इन उल्लेखों के प्राधार पर जैनधर्म व माहंत मत की व्यावहारिक प्रवत्ति गौण हो जाती है, क्योंकि उममें रामप्राचीनता का निश्चित होता है। इतना ही नहीं, इस काल द्वेष की प्रवृत्ति होती है। वास्तव में प्रवृत्ति का मूग राग चक्र की धारा मे अभिमत प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का भी कहा गया है। अतः राग-द्वेष के त्याग का नाम निवृत्ति सादर उल्लेख वैदिक गङ्मय तथा हिन्दू पुराणों में मिलता है। राग-द्वेष का सम्बन्ध बाहरी पर-पदाथों से होने के है। प्रतएव इनकी प्रामाणिकता मे कोई सन्देह नहीं है। कारण उनका भी त्याग किया जाता है, किन्तु स्याग का पूराण साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है मूल राग-द्वेष-मोह का प्रभाव है। जैसे-जैसे यह जीव १. डा०वासदेवशरण अग्रवाल : जैन साहित्य का इतिहास, ३. अस्तेय ब्रह्मचर्यज प्रलोभस्त्याग एव च । पूर्वपीठिका से उघृत, पृ० १३
व्रतानि पच मिक्षणहिसा परमारिवह। २. "तृदिला प्रतृदिलासो प्रद्रयो धमजा प्रशृथिता अमृत्यवः।"
लिंगपुराण, ८६, २४ "श्रमणो श्रमणस्तापतो तापसो."
४. "यथाजातरूपघरो नियंयो निष्परिग्रहस्तत्तद् ब्रह्ममार्ग..." वहदारण्यक, ४, ३, २२
-जाबालोपनिषद् पृ० २०६ वातरशना हवा ऋषयः श्रमणा ऊध्र्वमन्धिनो बभूवु" ५. “संन्यासः षविषो भवति-कूटिचक्र बहुदकहम परमतैत्तिरीय पारण्ययक, २ प्रपाठक, ७ अनुवाक, १-२ तथा हंस तुरीयातीत प्रवषश्रुति । सन्यासोपनिषद, १३
--- तत्तरीयोपनिषद. २,७ तुरीयातीत-सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखपत्या फला. "वातरसना यह्वषयधमणा उर्वमनिधनः ।"
हारी चेति गृहत्यागी देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः श्रीमद्भागवत ११, ६,४७ कुणपवच्छरोरवृत्तिकः। "यत्र लोका न लोका: "श्रमणो न श्रमणस्तापसो।" ६. एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
-ब्रह्मोपनिषद् कदा शम्भो भविष्यामि कमनिममनक्षतः "प्रारभारामा: समदशः श्रमणा: जना।"
वैराग्यशतक, ५८ वि० सं० १९८२ का संस्करण -श्रीमद्भागवत १२, ३, १८