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३३, कि. ४
तीनों ही युद्ध में हुआ अपमान तुम्हारा।
हार गए न्याय से हट चक्र भी मारा। देवोपुनीत शस्त्र न करते हैं वंश-धात । भूले इसे भी, आ गया जब दिल में पक्षपात ॥
तपव्रत किया कि नाम जहां में कमा लिया। कहते हैं तपस्या किसे, इसको दिखा दिया । कायोत्सर्ग वर्ष भर अविचल खड़े रहे। ध्यानस्थ इस कदर रहे, कवि किस तरह कह।
मिट्टी जमी शरीर से सटकर, इधर-उधर । बस बच गया पर तुमने नहीं छोड़ी कसर थी।
फिर दूब उगी, बेलें बढ़ो बाहों पै चढ़ कर ॥ सोचो, जरा भी दिल मे मुहब्बत की लहर थी?
बांबी बना के रहने लगे मौज से फनघर ।। दिल में था जहर, आग के मानिंद नजर थी।
मृग भी खुजाने खाज लगे ठूठ जानकर ।। थे चाहते कि जल्दी बधे भाई की अरथी॥
निस्पह हए शरार से वे आत्मध्यान में। अन्धा किया है तुमको, परिग्रह को चाह ने ।।
चर्चा का विषय बन गए सारे जहान मे ।। सब कुछ भुला दिया है गुनाहों की छाह ने ।
सोचो तो, बना रह सका किसका घमण्ड है ? पर, शल्य रही इतनी गोमटेश के भीतर । जिसने किया उसी का हुआ खण्ड-खण्ड है। ये पैर टिके हैं मेरे चक्र की भूमि पर ।'
अपमान, अहंकार की चेष्टा का दण्ड है। इसने ही रोक रखा था कैवल्य का दिनकर । किस्मत का बदा. बल सभी बल में प्रचण्ड है । वरना वो तपस्या थी तभो जाते पाप झर ।। है राज्य की ख्वाहिश तुम्हें लो राज्य संभालो। यह बात बढ़ी और सभी देश में छाई ।। मही पै विराजे उसे कदमों में
इतनी कि चक्रवति के कानो में भी आई।
सामान याकाला।।
उस राज्य को धिक्कार कि जो मद में डबा दे। सुन, दौड़े हुए आए भक्तिभाव से भरकर । अन्याय और न्याय का सब भेद भला दे। फिर बोले मधुर-वैन ये चरणों में झका सर । भाई की मुहब्बत को भी मिट्टी मे मिला दे। 'योगीश ! उसे छोड़िये ! जो द्वन्द्व है भीतर । या यों कहो-इन्सान को हैवान बनादे। हो जाय प्रगट जिससे शीघ्र आत्म दिवाकर ।।
दरकार नही ऐसे घणित राज्य की मन को। हो धन्य, पुण्यमूर्ति ! कि तुम हो तपेश्वरी । __ मैं छोडता हूँ आज से इस नारकीपन को॥ प्रभु ! कर सका है कौन तुम्हारी बराबरी
मुझसे अनेकों चक्री हुए, होते रहेगे। यह कहके चले बाहुबलि मुक्ति के पथ पर। यह सच है कि सब अपनी इसे भूमि कहेगे । सब देखते रहे कि हुए हों सभी पत्थर ।।।
पर, आप सचाई पै अगर ध्यान को देगे। भरतेश के भीतर था व्यथाओं का बवण्डर।
तो चक्रधर की भूमि कभी कह न सकेगे। स्वर मौन था, अटल थे कि धरती पै थी नजर ।।
मैं क्या हूँ 'तुच्छ !भूमि कहाँ ?यह तो विचारो। आँखों में आगया था दुखी-प्राण का पानी। कांटा निकाल दिल से अकल्याण को मारो। ___ या देख रहे थे खड़े वैभव की कहानी ॥ x x x x
चक्री ने तभी भाल को धरती से लगाया। जाकर के बाहुबली ने तपोवन में जो किया। पद-रज को उठा भक्ति से मस्तक पै चढाया । उस कृत्य ने ससार सभी दंग कर दिया ।।
(शेष पृष्ठ ३८ पर)