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बाहुबली-स्तवन
फिर दृष्टि-युद्ध, दूसरा भी सामने आया । अचरज, कि चक्रवति को इसमें भी हराया ॥ लघु-भ्राता को इसमें भी सहायक हुई काया । सब दंग हुए देख ये अनहोनी-सी माया । चक्रीश को पड़ती थी नजर अपनी उठानी । पड़ती थी जबकि दृष्टि बाहूबली को झुकानी ॥
गर्दन भी थकी, थक गए जब आँख के तारे । लाचार हो कहना पड़ा भरतेश को - 'हारे' | गुस्से में हुई आँखें, धधकते से अगारे । पर दिल में बड़े जोर से चलने लगे आरे ॥ तन करके रोम-रोम खड़ा हो गया तन का । मुह पर भी झलकने लगा जो क्रोध था मन का ।।
सव कांप उठे क्रोध जो चक्रीश का देखा । चेहरे पर उभर आई थी अपमान की रेखा ॥ सब कहने लगे 'अब के बदल जायेगा लेखा । रहने का नही चक्री के मन, जय का परेखा ॥' चक्रीश के मन में था - 'विजय अबके मैं लूगा । आते ही अखाड़े, उसे मद-हीन करूँगा || '
वह वक्त भी फिर आ ही गया भीड़ के आग । दोनो ही सुभट लड़ने लगे क्रोध में पागे ॥ हम भाग्यवान् इनको कहें, या कि अभागे ? आपस में लड़ रहे जो खड़े प्रेम को त्यागे । होती रही कुछ देर घमासान लड़ाई । भरपूर दाव पेच में थे दोनों ही
भाई ॥
थर-थर । अम्बर ॥ परस्पर ।
दर्शक ये दंग - देख विकट युद्ध - थे देवों से चिर रहा था समर भूमि का नीचे था युद्ध हो रहा दोनों में बाहूबली नीचे कभी ऊपर थे चक्रधर । फिर देखते ही देखते ये दृश्य दिखया । वाहूबली ने भरत को कंधे पे उठाया ।।
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यह पास था कि चक्री को धरती पे पटक दे अपनी विजय से विश्व की सीमाओं को ढक दे ॥
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रण-थल में बाहुबल से विरोधी को चटक दें । भूले नही जो जिन्दगी-भर ऐसा सबक दें । पर, मनमें सौम्यता की सही बात ये आई।'आखिर तो पूज्य हैं कि पिता-सम बड़े भाई !!'
उस
ओर भरतराज का मन क्रोध में पागा । 'प्राणान्त कर दूं भाई का यह भाव था जागा || अपमान की ज्वाला में मनुज-धर्म भी त्यागा । फिर चक्र चलाकर किया सोने में सुहागा ॥ वह चक्र जिसके बल पं छहों खण्ड झुके थे । अमरेश तक भी हार जिससे मान चुके थे ।
कन्धे से ही उस चक्र को चक्री ने चलाया । सुरनर ने तभी 'आह' से आकाश गुंजाया ॥ सब सोच उठे - 'देव के मन क्या है समाया ?" पर चक्र ने भाई का नहीं खून बहाया ॥ वह सौम्य हुआ, छोड़ बनावट की निठुरता । देने लगा प्रदक्षिणा धर मन में नम्रता ॥
फिर चक्र लौट हाथ में चक्रीश के आया । सन्तोष-सा, हर शख्स के चेहरे पे दिखाया || श्रद्धा से बाहुबलि को सबने भाल झुकाया । फिर कालचक्र दृश्य नया सामने लाया ॥ - भरतेश को रणभूमि में धीरे से उतारा। तत्काल बहाने लगे फिर दूसरी धारा ॥
धिक्कार है दुनिया कि है दमभर का तमाशा । भटकता, भ्रमता है पुण्य-पाप का पाशा ॥ कर सकते वफादारी की हम किस तरह आशा ? है भाई जहाँ भाई ही के खून का प्यासा ॥ चक्रीश ! चक्र छोड़ते क्या यह था विचारा ? मर जाएगा बेमोत मेरा भाई
दुलारा ॥
भाई के प्राण मे भी अधिक राज्य है प्यारा। दिखला दिया तुमने इसे, निज कृत्य के द्वारा ॥