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________________ अनेकान्त छोटा हूँ, मगर स्वाभिमान मुझमे कम नही। ये सुन पड़ा-न वोरों के अब खून बहेगे । बलिदान का बल है, अगर लड़ने का दम नहीं ॥ भरतेश व बाहूबली खुद आके लड़गे ।। 'स्वातन्त्र' के हित प्राण भी जाएं तो गम नहीं। दोनो ही युद्ध करके स्वर-बल आजमालगे। लेकिन तम्हारा दिल है वह जिसमे रहम नहीं। हारेंगे वही विश्व की नजरो मे गिरंग ।। कह देना चक्रधर से झुकेगा ये सर नही। दोनो ही बली, दोनों ही हैं चरम-शरोरी। , बाहुबली के दिल पै जरा भी असर नहीं । धारण करेग बाद को दोनो हो फकीरी॥ वेचूगा न आजादी को, लेकर मैं गुलामी। क्या फायदा है व्यर्थ में जा फौज कटाए' भाई है बराबर के, हो क्यो सेवको स्वामी ? बेकार गरीबों का यहाँ खन बहाए । मत डालिए अच्छा है यही प्यार में खामो। दोजख का सीना किसलिए हम मामने लाए ? आऊँगा नही जीते-जी देने को सलामी ॥' क्यों नारियो को व्यर्थ मे विधवाए बनाए सुन कर वचन, गजदत लोट के आया। दोनों के मंत्रियों ने इसे तय किया मिलकर । भरतेश को आकर के मभी हाल सुनाया ।। फिर दोनों नरेशों ने दी स्वीकारता इस पर ।। चप सुनते रहे जब तला, काबू में रहा दिल। तब युद्ध तीन किस्म के होते है मुकरर । पर देर तक खामोशी का रखना हआ मुश्किल ॥ जल-यद्ध, मल्ल-यद्ध, दप्टि-यद्ध, भय कर ।। फिर बोले जग जोर मे, हो क्रोध मे गाफिल। फिर देर थी या ? लड़ने लग दानो बिरादर । 'मरने के लिए आएगा, घया मेरे मुकाबिल? दर्शक है खडे देखते इकटक किए नजर ।। छोटा है, मगर उसको बडा-मा गार है। कितना यह दर्दनाक है दुनिया का रवंया। मुझको घमण्ड उमका मिटाना जरूर है। लड़ता है जर-जमी को यहां 'भैया में भैया ।। फिर क्या था, गमर-भूमि में बजने लगे वाजे। अचरज मे सभी डूबे जब ये मामने आया। हथियार उठाने लगे नग थे जो विराजे ॥ जल-युद्ध में चक्री को वाहवाल ने हराया ।। घोडे भी लगे हीमने, गजगज भी गाजे। झझला उठ भरतेश कि अपमान था पाया। कायर थे, छिपा आंग्ब वे रण-भूमि मे भाजे ॥ था सब्र, कि है जग अभी और बकाया ।। सुभगों ने किया दुर जब इन्सान का जामा । 'इस जीत मे बाहबली के कद की ऊचाई।घन-घोर मे संग्राम का तब सज गया सामां ।। लोगों ने कहा-खब ही वह काम मे आई !!" दोनों ही पक्ष आ गए, आकर अनी भिडी। भततेश के छीटे सभी लगते थे गले पर। सबको यकीन यह था कि दोनों में अब छिडी॥ बाहबली के पडते थे जा आँख के अन्दर ।। इतने में एक बात वहा ऐसी सुन पडी। दुखने लगी आँखें, कि लगा जैसे हो खजर। जिसने कि युद्ध-क्षेत्र में फैला दी गड़बड़ो। आखिर यों, हार माननी ही ड गई थक कर ॥ हाथों मे उठे. रह गए जो शस्त्र उठे थे। ढाईसौ-धनुष-दुगनी थी चक्रीश की काया। मुह रह गए वे मौन जो कहने को खुले थे। लघु-भ्रात की पच्चीस अधिक, भाग्यको माया।
SR No.538033
Book TitleAnekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1980
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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