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प्राचार्य बलदेव उपाध्यायके मत की समीक्षा
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माना जाता है। और श्री हर्ष का समय ११५६ ई० से है कि श्रीहर्ष की प्रतिभा देख कर जयचन्द्र ने अपना राज्य११६३ ई. तक माना जाता है।
कवि बना लिया था और नैषध की रचना भी राज्य की उपाध्याय जी के मत की समीक्षा---
प्रेरणा से हुई॥"। इमसे सिद्ध होता है कि नैषध की उपाध्याय जी ने हरिचन्द्र को वादीसिंह तथा श्रीहर्ष रचना ११५६ई. से पूर्व किसी भी स्थिति में नहीं हुई थी। का उत्तरवर्ती कषि ठहराया है । मैं उपाध्याय जी के इस निष्कर्ष-उपर्युक्त प्रवतरणों में मैंने भाचार्य बलदेव मत से तो सहमत हूं कि हरिचन्द्र बादीभसिंह के उतरवर्ती उपाध्याय जी द्वारा मान्य कवि हरिचन्द्र के समय और कवि हैं लेकिन श्रीहर्ष से उत्तरवर्ती होने के विषय में मैं उनके द्वारा अपने मत की पुष्टि में दिये गये प्रमाणों की उनके मत से असहमत हूं। जिसका कारण उपाध्याय जी का समीक्षा की। उन्ही के दिये गये प्रमाणों के फलस्वरूप कथन (विचार) ही है। क्योंकि श्रीहर्ष का समय में निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचा हंइन्होंने ११५६-११६३ ई० माना है और हरिचन्द्र का १: यदि प्राचार्य बलदेव उपाध्याय द्वारा स्वीकृत १०७५-११०५ ई० । इसलिये हरिचन्द्र श्रीहर्ष से पूर्ववर्ती महाकवि हरिचन्द्र का समय १०७५ ई० से ११५० ई० कवि होने चाहिये लेकिन बलदेव उपाध्याय जी ने हरिचन्द्र स्वीकार करें तो नषव काल की रचना ११५० ई. से पूर्व को श्रीहर्ष का उन रवर्ती कवि ठहराया है जो कि एक होनी चाहिये लेकिन विद्वानो का मत (प्राचार्य बलदेव म्रम ही कहा जा सकता है। क्योकि समय के अनुसार जो उपाध्याय का भी यही मन) है कि श्रीहर्ष ११५६ ई. से कवि उत्तरवर्ती है उसका अपने पूर्ववर्ती किसी भी कवि ११६३ के बीच कभी हुए थे जो कि कान्यकुब्ज राजापों के पर प्रभाव होना कठिन ही नही असभव भी है। इसलिये प्राश्रय प्राप्त थे प्रत: नषध का प्रभाव धर्मशर्माभ्युक्य हरिचन्द्र के काव्य पर श्री हर्ष का प्रमाव बतलाकर हरि चन्द्र महाकाव्य पर मान कर हरिचन्द्र को श्रीहर्ष का उत्तरवर्ती को श्रीहर्ष का उत्तरवर्ती कहना उपाध्याय जी का कवि कहना ठीक नही है। विरोधाभासपूर्ण मत है।
२. यदि उपाध्याय जी के मतानुसार नैषध काल का हो, मैं एक निवेदन प्रौर करना चाहँगा कि इस विषय ।
प्रभाव धर्मशर्माभ्युदय तथा जीवंधरचम्पू पर स्वीकार कर में उपाध्याय जी तथा उनके मत से सहमति रखने वाल
लें तब ऐसी स्थिति में उनके द्वारा स्वीकृत कवि हरिचन्द्र अनुसंधाता एवं इतिहासकार यह कह सकते है कि श्रीहर्ष
का समय (१०६५--११५० ई.) ठीक नहीं बैठता है। ने अपने काव्य नैषध की रचना जचचन्द एवं विजय चन्द्र,
कारण यह है कि श्रीहर्ष का समय हरिचन्द्र से बाद जो कि कान्यकुब्जाधिपति थे और जिन्होंने १५५६ ई० से
(११५६ -११९३ ई०) है। अतः उपाध्याय जी के मत
का खण्डन उन्ही के तकं से हो जाता है। ११६३ ई० तक राज्य किया था, के राजाश्रय प्राप्त होने
३. यदि महाकवि हरिचन्द्र का उपाध्याय जी द्वारा से पूर्व की थी। इस प्रकार की थी। इस प्रकार की
स्वीकृत समय हो माना जाये तो सिद्ध होता है कि धर्मअवधारणा उन विद्वानों की मात्र कल्पना ही कही जा
शर्माभ्युदय काव्य का प्रभाव नषधचरित्र पर निःसन्देह रूप सकती है क्योंकि स्वय कवि श्रीहर्ष ने नैषध में कान्यकुब्जाघिपति के प्राथय प्राप्ति की बात कही है। जो कि इस ४. हरिचन्द्र के वादीसिह के उत्तरवर्ती कवि होने में बात का स्पष्ट प्रमाण है कि नषध ११५६ ई. से बाद को किसी प्रकार का सदेह नहीं होना चाहिये। रचना है। नैषध की रचना के विषय मे श्री सत्यनारायण एम० ए०, एम. फिल. एक शोध छात्र (संस्कृत) जी शास्त्री लिखते हैं कि "किंवदन्ती से ही यह पता चलता
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर-४ ८. सस्कृत साहित्य का इतिहास, भाचार्य बलदेव १०. ताम्बलढयमासन च लभते यः कान्यकुब्जेश्वरातउपाध्याय, पृ० २२८
नंषध चरित, २२।१५५ ६. संस्कृत साहित्य का इतिहास, प्राचार्य बलदेव ११. सस्कृत साहित्य का नवीन इतिहास, बी सत्यउपाध्याय, पृ० २२८
नारायण शास्त्री, पृ.१७०