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जन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र काम्पिल्य
प्राचीन भारत की महानगरी काम्पिल्य' को पहिचान उत्तर प्रदेश के फखाबाद जिले की कायमगंज तहसील में, कायमगंज रेलवे स्टेशन से लगभग ८ कि० मी० की दूरी पर, पक्की सड़क के किनारे वर्तमान कंपिल नामक ग्राम से की जाती है। किसी समय गंगा को एक घारा इस स्थान के पास से बहती थी ।
काम्पिल्य चिरकाल से पाऊचाल देश (जनपद, विषय या राज्य की राजधानी रही, प्रोर जब पाञ्चाल उत्तर एवं दक्षिण, दो भागों में विभक्त हो गया, तो काम्पिल्य दक्षिण पाञ्चाल की राजधानी रही, जबकि उत्तर पाञ्चाल की राजधानी महिला बनी भारतीय धर्म एवं संस्कृति की अनेक पुराणगाथाओं तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं घट नामों के तथ्यों से काम्पिल्य का नाम जुड़ा है। यही कारण है कि जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण, तीनों ही परम्पराम्रो के साहित्य में नगर या प्रदेश के अनेक उल्लेख प्राप्त होते है। क्या यजुर्वेद (०२३ म० १०) को उवट एवं महीपर कुल टीका है, महाभारत, पाणिनीय की काशिकावृत्ति (४-२-१२१), चरक संहिता ( श्र० ३ सू० ३), अमरु शृंगारशतक की भाव चिन्तामणि टोका पादि ब्राह्मणीय ग्रन्थों में, बौद्धमहा उम्मग्गजातक ( २-३२६ ) मे, मोर तिलीय पण्यति, भगवती पारापना उनामगदसाधो बादिपुराण, उत्तर पुराण, पद्मपुराण, हरिवशपुराण, पुष्पदन्तकृत अपभ्रंण महापुराण, त्रिषष्टिस्मृति शास्त्र हेमाचार्यकृत १. साहित्य में कापिल्य के नामरूप कापिल्यनगर, कांपित्यपुर कंपिल या कंपिलपुरी, कंपिल्य, कपिला प्रादि प्राप्त होते हैं, और इसके प्रपर नाम माकन्दी पांचालपुरी या पंचाल्यपुरी मिलते है। महाभारत मादि १२३ (७३) तथा जैन इरिवंशपुराण (३५ / १२९) में माकन्दी नाम से कांपिल्य का उल्लेख हुमा है।
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विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, विमलनाथ पुराण, पांडव पुराण, हरिषेणीय बृहत्कथाकोष, प्रभाचन्द्रीय धाराधनासरकथा प्रवन्ध ब्रह्मनेमिदत कृत धाराथना कथा कोष, विविध कल्प, धनेश्वरसूरि कृत शत्रुजय महाभ्य मध्यकालीन तीर्थ मालाए, मादि जैन ग्रन्थो में
वस्तुतः कंपिलाजी (काम्पिल्य) जैन धर्मावलम्बियों का एक परम पावन तीर्थक्षेत्र प्रत्यन्त प्राचीन काल से रहता पाया है। इसमे कोई पतियायोक्ति नहीं है कि उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर, कोशाम्यो, काकन्दी, गौरीपुर, अहिछत्रा प्रादि कई प्राचीन स्थानों की भांति काम्पिल्य की स्मृति एवं प्रस्तित्व को अनेक प्रशो मे तीर्थं भक्त जंगे ने ही सुरक्षित रखा है इस तीर्थ की बन्दना के लिए मध्यकाल की विषम परिस्थितियों में भी बराबर भ्राते रहे और स्थान के अपने धर्मावर्तनों का संरक्षण, जीर्णोद्वार आदि भी करते रहे। आज भी यहाँ तीन जिनमंदिर व दो धर्मशालाए है। इनमे से एक मंदिर तो अति प्राचीन है। जो मूलतः वि०स० ५४९ मे निर्मित हुआ बताया जाता है । इस मन्दिर मे मूलनायक के स्थान पर प्रतिष्ठित श्यामल-मंगिया पाषाण की प्रति मनोश एवं चमत्कारिक प्रतिमा कम्पियनगर में अतेरहवे तीर्थंकर विमलनाथ की है, जो गुनी एवं मूल जिनालय जितनी प्राचीन धनुमान की जाती है। यह प्रतिमा गगा की रेती से निकली थी। इसके अतिरिक्त इन मंदिरों मे धन्य धनेक
२. ज्योतिप्रसाद जैन, 'उत्तरप्रदेश भोर जैन धर्म' लखनऊ १९७६ पृ० ४१
३. कामताप्रसाद जैन कृत - 'कांपिल्यकीर्ति', प्रलीगंज १२५२ पृ० ४६, बलभद्र जैन भारत के दिन तीर्थ', भारतीय ज्ञानपीठ १९७४ भाग–१, १०१०१ ४. वही पृ० १०८