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जैन संस्कृति का प्राचीन केन्द्र काम्पित्य
जिन प्रतिमाएं स्थापित हैं जो ११वी से १६वी शती ई० भरत के अनुज महाबाह भजलि ने मुनि दीक्षा ले ली तो पर्यन्त विभिन्न समयों की प्रतिष्ठित है।' किन्हो दिगम्बर उन्हीं के अन्य भाई पाञ्चाल नरेश ने भी राज्य का भट्टारकों द्वारा स्थापित दो चरण-चिह्न पट्ट भी प्राचीन परित्याग करके जिन दीक्षा ले ली थी।" मंदिर में है। प्रास-पास के क्षेत्र व गगा नदी के खाली से
इस काम्पिल्य नगरी में पुरुदेव भगवान ऋषभ की अनेक खंडित प्रखडित जिनमूर्तियाँ एवं जैन कलाकृतियाँ
सन्तति में उत्पन्न इक्ष्वाकुवंशी महाराज कृतवर्मा की भी प्राप्त होती रही है। चैत्र और अश्विन मे प्रतिवर्ष
महादेवी जयश्यामा ने माघ शुक्ल चतुदंशी के शुभ दिन यहां दो जैन मेने, मस्तकाभिषेक, रथयात्रा, जलयात्रा
१३वे तीर्थकर बराह लाछन भगवान विमलनाथ प्रपरनाम प्रादि होते है । सन् १८३० ई. का चंत्री रथोत्सव विशेष
विमल वाहन को जन्म दिया था।" भगवान के जन्मोपलक्ष्य महत्वपूर्ण था क्योंकि माधुनिक युग मे इस तीर्थ की सार
में देवराज शक के भादेश से यक्षाधिप एवं घनाधिप कुबेर सम्हाल की भोर समाज की विशेष रुचि तभी सहई
ने इस नगरी को इतना शोभायमान बना दिया था कि, लगती है।' भोगाव निवासी कवि सदानन्द ने वि० सं०
महाकवि पृष्पदत के शब्दो में वह ऐसी लगती थी मानों १८८७ के इस मेले का माखो देखा वर्णन कविता बद्ध
स्वगं हो पृथ्वी पर उतर पाया है। अन्य प्राचार्यों ने भी किया था।
प्राचीन काम्पिल्य के मौन्दर्य एव वैभव का ऐसा ही वर्णन जैन परम्परा के अनुसार कर्मभूमि का सभ्ययुग के किया है। जिनप्रभसूरि ने तो यह भी लिखा है कि प्रारम्भ में प्रथम तीर्थकर मादिपुरुष भगवान ऋषभदेव ने क्योकि इस नगर में भगवान के च्यवन, जन्म, राज्याभिषेक, विभिन्न राज्यों एवं जनपदो को स्थापना की थी तो दीक्षा और केवल ज्ञान ऐसे पाच कल्याणक हुए थे, इसका पाञ्चाल देश भी उनमे से एक था और उसक शासन भार नाम पंचकल्याणकनगर अर्थात् पञ्चालपुरी रूढ़ ही हो गया, उन्होने अपने एक सौ पुत्रों में से एक को सोपा था।" और क्योकि भगवान शंकरलाञ्छन थे लोक में यह स्थान केवलज्ञान प्राप्ति के उपरान्त तीर्य कर वृषभदेव का विहार शकरक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हया। वर्तमान में सोरों जो भी इस जनपद मे हुमा " और उनका समवसरण कपिला से नानिदूर पश्चिम में है, सूकर क्षेत्र कहलाता काम्पित्य मे पाया था। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती है।"सभव है, जिनप्रभ के समय (१४वी शती में) कंपिला की दिग्विजय के प्रसग में भी पाञ्चाल का उल्लेख हुमा के प्रासपास का क्षेत्र ही सूकर क्षेत्र कहलाता है मौर है।" जब भरतचक्रवर्ती की पराधीनता अस्वीकार करके मूलतः ती. विमल के लाञ्छन के कारण हो । स्व.
५. कांपिल्य वही पृ०५०.५१
१४. कपिलपुरे विमलो ज० दे० कदम्ब तपस्तामा हि. ६. वही पृष्ठ ५०
माघसिदि चोददसिए-पूधामोह पदे १विलोय७. कामताप्रसाद जैन, 'जंन विवरण पत्रिका' जि.
पण्णत्ति ४.५३८ उत्तरपुराण भा० ज्ञानपीठ पृ० ६८. __ फर्म खाबाद, पलीगंज १६४६ पृ० १३
६६, पुष्षदतीयमहापु० ५५॥३-४ मा० २ पृ०२०४ ८. 'कम्पिलाकीति' पृ० ८२
प्रशाघरीय त्रिषष्ठिस्मृतिशास्त्र १३॥३-४ ६. यथा-विमलनाथ जिनको पारिभाव पाती चहुदिशि १५. तदेवकंपिलानाम्ना विष परमापुरी। लिखीचित में पाठों चाव । कम्पिला रथयात्रावर्णन
दोषमुक्ता गुणयुक्ता धनाढ्या स्वर्णस ग्रहा । पृ० १५, कामताप्रसाद वही पृ० ५२
विमलनाथपुराण ॥ १०. प्रादिपुराण, भा० ज्ञा०पीठ सस्करण १८/१५१-१५६ 'कापिल्यनगराभिषं पुर सुरपुरोपमम् ।' ११. वही २५५२६७, हरिवंगपुराण मा० ज्ञा० पी० ३।३७
हरिषेणीय ब.क. कोष ।। १२. प्रादिपुराण २६।४०
१६. विविध तीर्थकल्प पृ० ५०, कम्पिलापुरी कल्प० १३. हरिवंशपुराण १११६४
१७. कामताप्रसाद जैन वही पृ० ५५